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साथ आने की भावना अनुचित है। मोह आखिर दुःखदायी है। हां दीक्षा लेने की तुम्हारी भावना श्रेष्ठ है। संसार सागर से पार उतरने का यही एक साधन है। तो भी अभी तुम्हारा समय नहीं आया है। अभी तुम्हारे भोगावली कर्म अवशेष है। उन्हें भोगे बिना तुम दीक्षा नहीं ले सकते। अतः हे युवराज! क्रमागत अपने इस राज्यभार को ग्रहण करो, प्रजा का पालन करो, न्याय से शासन करो और मुझे संयम लेने की अनुमति दो।'
सगरकुमार स्तब्ध होकर प्रभु के मुख की ओर देखने लगा। क्या करना और क्या नहीं? उसके हृदय की अजब हालत थी। एक ओर स्वामीविछोह की वेदना थी और दूसरी तरफ स्वामी की आज्ञा भंग होने का खयाल था। वह दोनों से एक भी करना नहीं चाहता था। न विछोह-वेदना सहने की इच्छा थी और न आज्ञा मोड़ने ही की। मगर दोनों परस्पर विरोधी बातें एक साथ कैसे होती? दिन रात का मेल कैसे संभव था? आखिर कुमार ने विछोह-वेदना को, आज्ञा मोड़ने से ज्यादा अच्छा समझा। 'गुरुजनों की आज्ञा मानना ही संसार में श्रेष्ठ है। इसलिए प्रभु से विलग होने में सगरकुमार का हृदय खंड-खंड होता था तो भी उसने प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य की ओर भग्न स्वर में कहा – 'प्रभो! आपकी आज्ञा शिरसावंद्य है।'
प्रभु ने सगरकुमार को राज्याधिकारी बनाया और आप वर्षीदान देने में प्रवृत्त हुए। इंद्र की आज्ञा से तिर्यजूंभक नामवाले देवता, देश में से ऐसा धन ला लाकर चौक में, चौराहों पर, तिराहों पर और साधारण मार्ग में जमा करने लगे जो स्वामी बिना का या जो पृथ्वी में गड़ा हुआ था, जो पर्वत की गुफाओं में था, जो श्मशान में था और जो गिरे हुए मकानों के नीचे दबा हुआ था।
धन जमा हो जाने के बाद सब तरफ ढिंडोरा पिटवा दिया गया कि, लोग आवें और जिन्हें जितना धन चाहिए वे उतना ले जावें। प्रभु सूर्योदय से भोजन के समय तक दान देते थे। लोग आते थे और उतना ही धन ग्रहण करते थे जितनी ही उनको आवश्यकता होती थी। वह समय ही ऐसा था कि, लोग मुफ्त का धन, बिना जरूरत लेना पसंद नहीं करते थे। प्रभु रोज
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 53 :