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जीतनेवाले उन राजर्षि ने अखंड व्रत पाला। क्रमशः केवल ज्ञान हुआ और अंत में शैलीशी ध्यान में स्थित उन महात्मा ने अष्ट कर्मों का नाश कर परम पद प्राप्त किया।
अजितनाथ स्वामी समस्त ऋद्धि सिद्धि सहित राज करने लगे। जैसे उत्तम सारथी से घोड़े सीधे चलते हैं वैसे ही अजित स्वामी के समान दक्ष और शक्तिशाली नृप को पाकर प्रजा भी नीति मार्ग पर चलने लगी। उनके शासन में पशुओं के सिवा कोई बंधन में नहीं था। ताड़ना वाजिंत्रों ही की होती थी। पिंजरे में पक्षी ही बंद किये जाते थे। अभिप्राय यह है कि, प्रजा में सब तरह का सुख था। वह नीति के अनुसार आचरण करती थी। उसमें अजित स्वामी के प्रभाव से अनीति का लेश भी नहीं रह गया था।
उनके पास सकल ऐश्वर्य था तो भी उन्हें उसका अभिमान नहीं था। अतुल शरीर बल रखते हुए भी उनमें मद न था। अनुपम रूप रखते हुए भी उन्हें सौंदर्य का अभिमान नहीं था। विपुल लाभ होते हुए भी उन्मत्तता उनके पास नहीं आती थी। अनेक प्रलोभन और मद-मात्सर्य को बढ़ाने वाली सामग्रियों के होते हुए भी वे सबको उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे। तृणतुल्य समझते थे। इस प्रकार राज्य करते हुए अजित स्वामी ने तिरपन लाख पूर्व का समय व्यतीत किया।
एक दिन प्रभु अकेले बैठे हुए थे। अनेक प्रकार के विचार उनके अंतःकरण में उठ रहे थे। अंत में वैराग्य भावना की लहर उठी। उस भावना ने उनके अन्यान्य समस्त विचारों को बहा दिया। हृदय के ही नहीं, समस्त शरीर के शिरां प्रशिरा में रग-रग और रेशे रेशे में वैराग्य-भावना ने अधिकार कर लिया। संसार से उनका चित्त उदास हो गया।
जिस समय अजित स्वामी का चित्त निर्वेद हो गया था। उस समय सारस्वतादि लोकांतिक देवताओं ने आकर विनती की 'हे भगवन्! आप स्वयंबुद्ध हैं। इसलिए हम आपको किसी तरह का उपदेश देने की धृष्टता तो नहीं करते परंतु प्रार्थना करते हैं कि, आप धर्म तीर्थ चलाइए।'
देवता चरणवंदना कर चले गये। अजित स्वामी ने मनोनुकूल अनुरोध
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 51 :