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वार के लिए उस समय नारकी जीवों को भी सुख हुआ । चारों दिशाओं में प्रसन्नता हुई। लोगों के अंतःकरण प्रातःकालीन कमल की भांति विकसित हो गये। दक्षिण वायु मंद मंद बहने लगी। चारों तरफ शुभसूचक शकुन होने लगे। कारण, महात्माओं के जन्म से सब बातें अच्छी ही होती है।
छप्पन कुमारिकाओं के आसन कंपे और वे प्रभु की सेवा में आयी । इंद्रादि देवों के आसन विकंपित हुए। चौसठ इंद्रों ने आकर प्रभु का जन्मकल्याणक किया।
उसी रात को वैजयंती ने भी जैसे गंगा स्वर्णकमल को प्रकट करती है वैसे ही एक पुत्र को जन्म दिया।
जितशत्रु राजा को यथा समय समाचार दिये गये। राजा ने बड़ा हर्ष प्रकट किया। उसने प्रसन्नता के कारण राजा- -विद्रोहियों और शत्रुओं तक को छोड़ दिया। शहर में ये समाचार पहुंचे। आनंद - कोलाहल से नगर परिपूर्ण हो गया। बड़े-बड़े सामंत और साहूकार लोग आ-आकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए राजा को भेंट देने लगे। किसी ने रत्नाभूषण, किसीने बहु मूल्य रेशमी और सनके वस्त्र, किसी ने शस्त्रास्त्र, किसीने हाथी घोड़े और किसीने उत्तमोत्तम कारीगरी की चीजें भेट कीं। राजा ने उनकी आवश्यकता न होते हुए भी अपनी प्रजा को प्रसन्न रखने के लिए सब प्रकार की भेटें स्वीकार की।
समस्त नगर में बंदनबार बंधे। दस दिन तक नगर में राजा ने उत्सव कराया। माल का महसूल न लिया और किसी को दंड भी न दिया। कुछ दिन बाद राजा ने नामकरण संस्कार के लिए महोत्सव किया। मंगल गीत गाये गये। बहुत सोच विचार के बाद राजा ने अपने पुत्र का नाम 'अजित' रखा। कारण, जब से यह शिशु कूख में आया तब से राजा अपनी पत्नी के साथ चौसर खेलकर कभी नहीं जीते। भ्राता के पुत्र का नाम 'सगर'
रखा गया।
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अजितनाथ स्वामी अपने हाथ का अंगूठा चूसते थे। उन्होंने कभी माय (माता) का दूध नहीं पिया। उनके अंगूठे में इंद्र को रखा हुआ अमृत
: श्री अजितनाथ चरित्र : 48: