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नगर में जाकर विमलवाहन ने अपने मंत्रियों को बुलाया। उनके सामने अपनी दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। मंत्रियों ने खिन्न अंतःकरण के साथ राजा की इच्छा में अनुमोदन दिया। तब राजा ने अपने पुत्र को बुलाया
और उसे राजभार ग्रहण करने के लिए कहा। यद्यपि उसका हृदय बहुत दुःखी था तथापि पिता की आज्ञा को उसने सिर पर चढ़ाया। विमलवाहन ने पुत्र को राजसिंहासन पर बिठाकर, आचार्य महाराज के पास दूसरे दिन दीक्षा ले ली।
इन्होंने समिति, गुप्ति, परिसह आदि क्रियाओं को निर्दोष करते हुए अपने मन को स्थिर किया। वे सिद्ध, गुरु, बहुश्रुत, स्थविर, तपस्वी, श्रुतज्ञान और संघ में भक्ति रखते थे। यही उनका इन स्थानकों का आराधन था। इनसे और अन्यान्य तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करनेवाले स्थानकों का आराधन करके, तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया। उन्होंने एकावली, रत्नावली
और 'ज्येष्ठ सिंहनिष्क्रीडित' तथा 'कनिष्ठ सिंह निष्क्रीडित' आदि उत्तम तप किये। अंत में उन्होंने दो प्रकार की संलेखना और अनसन व्रत ग्रहण करके पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए देह का त्याग किया। दूसरा भव :
वहां से आयु पूर्ण कर राजा विमलवाहन, का जीव 'विजय' नाम के अनुत्तर विमान में, तैंतीस सागरोपम की आयु वाला देव हुआ। वहां के देवताओं का शरीर एक हाथ. का होता है। उनका शरीर चंद्रकिरणों के समान उज्ज्वल होता है। उन्हें अभिमान नहीं होता। वे सदैव सुखशय्या में सोते रहते हैं। उत्तर क्रिया की शक्ति रखते हुए भी उसका उपयोग करके वे दूसरे स्थानों में नहीं जाते। वे अपने अवधिज्ञान से समस्त लोकनालिका (चौदह राजलोक का) अवलोकन किया करते हैं। वे आयुष्य के सागरोपम की संख्या जितने पक्षों से, यानी तेतीस पक्ष बीतने पर, एक बार वास लेते हैं। तेतीस हजार वरस में एक बार उन्हें भोजन की इच्छा होती है। जो शुभ 1. देखो पेज नं. ११ 2. तपों का हाल जानने के लिए देखो – 'श्री तपोरत्न महोदधिः ‘तपविधि संचय'
: श्री अजितनाथ चरित्र : 46 :