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मोहांधकार को दर्शनसूर्य ने मिटा दिया है। राजा के अंतःकरण में एक अभूतपूर्व आनंद हुआ। पृथ्वी के समान क्षमा को धारण करनेवाले आचार्य महाराज ने उसको धर्मलाभ दिया। राजा बैठ गया। आचार्य महाराज धर्मोपदेश देने लगे।
जब उपदेश समाप्त हो गया, तब राजा ने पूछा – 'दयानाथ! संसार रूपी विषवृक्ष के अनंत दुःख रूपी फलों को भोगते हुए भी मनुष्यों को जब वैराग्य नहीं होता; वे अपने घरबार नहीं छोड़ते; तब आपने कैसे राज्यसुख छोड़कर संयम ग्रहण कर लिया?'
मुनि ने अपनी शांत एवं गंभीर वाणी में उत्तर दिया -
'राजन्! संसार में जो सोचता है उसके लिए प्रत्येक पदार्थ वैराग्य का कारण होता है और जो नहीं सोचता उसके लिए भारी से भारी घटना भी वैराग्य का कारण नहीं होती। मैं जब गृहस्थ था तब अपनी चतुरंगिणी सेना सहित दिग्विजय करने निकला। एक जगह बहुत ही सुंदर बगीचा मिला। मैंने वहीं डेरा डाला और एक दिन बिताया। दूसरे दिन मैं वहां से चला गया। कुछ काल के बाद जब. मैं दिग्विजय करके वापिस लौटा तब मैंने देखा कि, वह बगीचा नष्ट हो गया है, सुमन-सौरभपूर्ण वह बगीचा कंटकाकीर्ण हो रहा है। उसी समय मेरे अंतःकरण में वैराग्य - भावना उठी। संसार की असारता और उसका मायाजाल मेरी आंखों के सामने खड़ा हुआ। मैंने, अपने राज्य में पहुंचते ही राज्य लड़के को सौंप दिया और निर्वाण-प्राप्ति के लिए चिंतामणि रत्न के समान फल देनेवाली दीक्षा, महामुनि के पास से ग्रहण कर ली।' . . .
. राजा का अंतःकरण पहले ही संसार से उन्मुख हो रहा था। इस समय उसने इसे छोड़ देने का संकल्प कर लिया। उसने आचार्य महाराज से प्रार्थना की – 'गुरुवर्य! मैं जाकर राजभार अपने लड़के को सौमूंगा और कल फिर आपके दर्शन करूंगा। आपसे संयम ग्रहण करूंगा। कल तक आप यहां से विहार न करें।' आचार्य महाराजा ने राजा की प्रार्थना स्वीकार की। राजा नगर में गया।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 45 :