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भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता - स्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याता - स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। . भाव यह है कि, हमने बहुत कुछ भोग भोगे परंतु भोगों का अंत न आया; हां हमारा अंत हो गया। हमने तापों को, दुःखों को नहीं सुखाया परंतु संसार के तापों ने शोक, चिन्तादि ने तपा-तपाकर हमारे शरीर को क्षीण कर दिया। काल-समय समाप्त न हुआ, परंतु हमारी आयु समाप्त हो गयी। जिस तृष्णा के वश में होकर हमने अपने कार्य किये वह तृष्णा तो नष्ट न हुई मगर हम ही नष्ट हो गये।
उर्दू के कवि जौक ने कहा है - पर जोक तूं न छोड़ेगा इस पीस जाल को, यह पीरा जाल गर तुझे चाहे तो छोड़ दे।
अभिप्राय यह है कि, लोग दुनिया को नहीं छोड़ते। दुनिया ही लोगों . को निकम्मे बनाकर छोड़ देती है। .
विमलवाहन वैराग्य-भावों में निमग्न था, उसी समय उसने सुना कि अरिंदम नामक आचार्य महाराज विहार करते हुए आये हैं और उद्यान में ठहरे हैं।
इस समाचार को सुनकर राजा को इतना हर्ष हुआ जितना हर्ष दाने के मोहताज को अतुल संपत्ति मिलने से या बांझं को सगर्भा होने से होता है। वह तत्काल ही बड़ी धूमधाम के साथ आचार्य महाराज को वंदना करने के लिए रवाना हुआ। उद्यान के समीप पहुंचकर राजा हाथी से उतर गया। उसने अंदर जाकर आचार्य महाराज को विधि पूर्वक वंदन किया।
मुनि के चरणों में पहुंचते ही राजा ने अनुभव किया कि, मुनि के दर्शन उसके लिए, कामबाण के आघात से बचाने के लिए वज्रमय बख्तर के समान हो गये हैं; उसका राग-रोग मुनिदर्शन-औषध से मिट गया है। द्वेष-शत्रु मुनिदर्शन-तेज से भाग गया है। क्रोध-अग्नि दर्शन-मेघ से बुझ गयी है; मानवृक्ष को दर्शनगज ने उखाड़ दिया है; माया-सर्पिणी को दर्शनगरुड़ ने डस लिया है। लोभपर्वत को दर्शनव्रज ने विध्वंस कर दिया है;
: श्री अजितनाथ चरित्र : 44 :