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पुद्गलों के परिणमन से पूर्ण हो जाती है। इसी प्रकार विमलवाहन राजा के जीव का मी काल बीतने लगा। तब आयु में छः महीने बाकी रहे तब दूसरे देवताओं की तरह उन्हें मोह न हुआ, प्रत्युत पुण्योदय के निकट आने से उनका तेज और भी बढ़ गया। तीसरा भव :
. विनीता नगरी के स्वामी आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी के बाद इक्ष्वाकु वंश में असंख्य राजा हुए। उस समय जितशत्रु वहां के राजा थे, विजयादेवी उनकी रानी थी। विजयादेवी ने हस्ती आदिक चौदह स्वप्न देखे। वह सगर्भा हुई। विमलवाहन राजा का जीव विजया विमान से च्यवकर, रत्न की खानि के समान विजयादेवी की कूख में आया। उस दिन वैशाख की शुक्ल त्रयोदशी थी और चंद्र का योग रोहिणी नक्षत्र में आया था। इनको गर्भ में ही तीन ज्ञान (मति, श्रुति और अवधि) थे।
उसी दिन रात को राजा के भाई सुमित्र की स्त्री वैजयंती को भीजिसका दूसरा नाम यशोमती था - वे ही चौदह स्वप्न आये। उसकी कूख में भावी चक्रवर्ती का जीव आया। .
सवेरा होने पर राजा को दोनों के स्वप्नों की बात मालूम हुई। राजा ने निमत्तिकों से फल पूछा। उन्होंने नक्षत्रादि का विचार करके स्वप्नों का फल बताया कि, विजयादेवी की कूख से तीर्थंकर जन्म लेंगे और यशोमती के गर्भ से चक्रवर्ती।
इंद्रादि देवों के आसन विकंपित हुए। उन्होंने नंदीश्वर द्वीप पर जाकर च्यवनकल्याणक का उत्सव किया।
. जब नौ महीने और साढ़े आठ दिन व्यतीत हुए तब माघ शुक्ला अष्टमी के दिन विजयादेवी ने, सत्य और प्रिय वाणी जैसे पुन्य को जन्म देती है, वैसे ही पुत्ररत्न को प्रसव किया। मुहूर्त शुभ था। सारे ग्रह उच्च के थे। नक्षत्र रोहिणी था। पुत्र के पैर में हाथी का चिह्न था। प्रसव के समय देवी और पुत्र-दोनों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। बिजली के प्रकाश के समान कुछ क्षण (अन्तर्मुहूर्त) के लिए तीनों भुवन में उजाला हो गया। क्षण
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 47 :