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से प्रभु ने अवशेष केशों का लोच करना चाहा तब इंद्र ने उतने केश रहने देने की प्रार्थना की। प्रभु ने यह प्रार्थना स्वीकार की; क्योंकि, 'स्वामी अपने एकांत भक्तों की याचना व्यर्थ नहीं करते हैं। प्रभु के दीक्षा महोत्सव से संसार के अन्यान्य जीवों के साथ नारकी जीवों को भी सुख हुआ। उसी समय प्रभु को मनुष्य क्षेत्र के अंदर रहनेवाले समस्त संज्ञी पंचेन्द्री जीवों के मनोद्रव्य को प्रकाशित करनेवाला मनः पर्ययज्ञान प्रकट हुआ।
प्रभु के साथ ही कच्छ, महाकच्छ आदि चार हजार राजाओं ने प्रभु के साथ दीक्षा ले ली।
प्रभु मौन धारणकर पृथ्वी पर विचरण करने लगे। पारणे वाले दिन प्रभु को कहाँ से भी आहार नहीं मिला। क्योंकि लोग आहारदान की विधि से अपरिचित थे। वे तो प्रभु को पहिले के समान ही घोड़े, हाथी, वस्त्र, आभूषण आदि भेट करते थे, परंतु प्रभु को तो उनमें से एक की भी आवश्यकता नहीं थी । भिक्षा न मिलने पर भी किसी तरह मनः क्लेश विना जंगम तीर्थ की भांति प्रभु विचरण करते थे और क्षुधापिपासादि भूख प्यास आदि परिसहों को सहते थे । अन्यान्य साधु भी प्रभु के साथ-साथ विहार करते रहते थे।
क्षुधा आदि से पीड़ित और तत्त्वज्ञान से अजान साधु विचार करने लगे कि भगवान न जंगल में पके हुए मधुर फल खाते हैं और न निर्मल झरणों का जल ही पीते है। सुंदर शरीर पर इतनी धूल जम गयी है तो भी उसे हटाने का प्रयास नहीं करते। धूप और सरदी को झेलते हैं; भूख प्यास की बाधा सहते हैं; रात को कभी सोते भी नहीं हैं। हम रात दिन इनके साथ रहते हैं। परंतुं कभी दृष्टि उठाकर हमारी तरफ देखते भी नहीं है। न जाने इन्होंने क्या सोचा है? कुछ भी समझ में नही आता । हम इनकी तरह कब तक ऐसे दुःख झेल सकते हैं? और दुःख तो झेले भी जा सकते हैं; परंतु क्षुधातृषा के दुःख झेलना असंभव है। इस तरह विचारकर सभी गंगा तट के नजदीकवाले वन में गये और कंद, मूल, फलादि का आहार करने लगे और गंगा का जल पीने लगे। तभी से जटाधारी तापसों की प्रवृत्ति हुई ।
कच्छ और महाकच्छ के नमि और विनमि नामक पुत्र थे। वे प्रभु ने
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 27 :