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श्रावकों और सुंदरी आदि श्राविकाओं के समूह को मिलाकर चतुर्विध संघ की स्थापना हुई। उस चतुर्विध संघ की योजना आज भी है। और उसके द्वारा अनेक जीवों का कल्याण होता है।
उस समय प्रभु ने गणधर होने योग्य ऋषभसेन आदि चौरासी सदबुद्धि साधुओं का, सर्व शास्त्र समन्वित उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य नामकी पवित्र त्रिपदी का उपदेश दिया। उस त्रिपदी के अनुसार उन्होंने (साधुओं ने) चतुर्दश पूर्व और द्वादशांगी रची। फिर इंद्र दिव्य चूर्ण का (वासक्षेप का) एक थाल भरकर प्रभु के पास खड़ा रहा। प्रभु ने खड़े होकर गणधरों पर, क्रमशः चूर्ण क्षेप किया - डाला और सूत्र से, अर्थ से, सूत्रार्थ से, द्रव्य से, गुण से, पर्याय से और नय से, उन्हें अनुयोग-अनुज्ञा दी, (उपदेश देने की आज्ञा दी) तथा गण की अनुज्ञा भी दी। तत्पश्चात् देवताओं, मनुष्यों और उनकी स्त्रियों ने दुंदुभि की ध्वनिपूर्वक उन पर चारों तरफ से वासक्षेप किया। प्रभु की वाणी को ग्रहण करने वाले सभी गणधर हाथ जोड़कर खड़े रहे। उस समय प्रभु ने पूर्व की तरफ मुंहकर बैठे हुए पुनः धर्मदेशना दी।
उज्ज्वल शालि का बना हुआ और देवताओं द्वारा सुगंधमय किया हुआ, बलि (नैवेद्य) समवसरण के पूर्व द्वार से अंदर लाया गया। स्त्रियां मंगल-गीत गाती हुई उसके पीछे-पीछे आयी। वह बलि प्रभु के प्रदक्षिणा करके उछाला गया। उसका आधा भाग पृथ्वी में पड़ने के पहले ही देवताओं ने ग्रहण कर लिया। अवशेष आधे का आधा भरत ने लिया और आधा लोगों ने बांट के ले लिया। उस बलि के प्रभाव से पहले के जो रोग होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं और आगामी छः मास तक कोई रोग नहीं होता है।
प्रभु वहां से उठकर मध्य भागस्थ देवछंदे में विश्राम करने के लिए बैठे। गणधरों में मुख्य ऋषभसेन ने प्रभु के पादपीठ पर बैठकर धर्मदेशना दी। तत्पश्चात् सभी अपने-अपने स्थान पर चले गये।
___ इस प्रकार तीर्थ की स्थापना होने पर प्रभु के पास रहने वाला 'गोमुख' नाम का यक्ष प्रभु के तीर्थ का अधिष्टायक देवता हुआ। इसी भांति प्रभ के तीर्थ में उनके पास रहने वाली प्रतिचक्रा नाम की देवी शासन देवी हुई, जिसे हम चक्रेश्वरी के नाम से पहचानते हैं। ..
: श्री आदिनाथ चरित्र : 36 :