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ही मनुष्य वेणु (बंसी) और वीणा के नाद में कान लगाकर अपने आत्महित
भ्रष्ट होता है। एक साथ प्रबल बने हुए वात, पित्त और कफ जैसे जीवन का अंत कर देते हैं वैसे ही प्रबल विषय कषाय भी मनुष्य के आत्महित का अंत कर देते हैं। इसलिए इनमें लिप्त रहनेवाले प्राणियों को धिक्कार है। '
प्रभु जिस समय इस प्रकार वैराग्य की चिंतासंतति के तंतुओं द्वारा व्याप्त हो रहे थे, उस समय ब्रह्म नामक पांचवें देवलोक के अंत में बसने वाले सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दितोय, तुषिताश्च, अव्याबाध, मरुत और रिष्ट, नौ प्रकार के लोकांतिक देव प्रभु के पास आये और सविनय बोले 'भरतक्षेत्र में नष्ट हुए मोक्षमार्ग को बताने में दीपक के समान हे प्रभो! आपने लोकहितार्थ अन्यान्य प्रकार के व्यवहार जैसे प्रचलित किये हैं वैसे ही अब धर्मतीर्थ को भी चलाइए । '
इतना कह वंदना कर देवता अपने स्थान को गये। प्रभु भी दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय कर वहां से अपने महलों में गये।
साधुजीवन :
प्रभु ने महल में आकर भरत को राज्य ग्रहण करने का आदेश . दिया। भरत ने वह आज्ञा स्वीकार की । प्रभु की आज्ञा से सामन्तों, मंत्रियों और पुरजनों ने मिलकर भरत का राज्याभिषेक किया। प्रभु ने अपने अन्याय पुत्रों को भी अलग-अलग देशों के राज्य दे दिये। फिर प्रभु ने वरसीदान देना प्रारंभ किया। नगर में घोषणा करवा दी कि जो जिसका अर्थी हो वह वही आकर ले जाय। प्रभु सूर्योदय से लेकर मध्याह्न तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राओं का दान नित्य प्रति करते थे। तीन सौ अठ्यासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान प्रभु ने एक वरस में किया था। यह धन देवताओं ने लाकर पूरा किया था। प्रभु दीक्षा लेनेवाले हैं यह जानकर लोग भी वैराग्योन्मुख हो गये थे, इसलिए उन्होंने उतना ही धन ग्रहण किया था, जितनी उनको आवश्यकता थी।
तत्पश्चात् इंद्र ने आकर प्रभु का दीक्षा - कल्याणक किया। चैत्रकृष्ण अष्टमी के दिन जब चंद्र उत्तराषाढा नक्षत्र में आया था, तब दिन के पिछले प्रहर में प्रभु ने चार मुष्टि से अपने केशों को लुंचित किया। जब पांचवीं मुष्टि : श्री आदिनाथ चरित्र : 26 :