Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
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हाँ, फिर जो आचाराङ्ग आदि बारह श्रुतज्ञानके प्रतिपादक शास्त्र हैं, वे ऐसे तत्त्वार्थ सूत्र सरीखे अनेक शास्त्रों के समुदायरूप होनेसे महाशास्त्र है। जैसे अनेक छोटे छोटे स्कन्ध वाले समूहोंका आधार एक महास्कन्ध होता है । एक अक्षौहिणी, घोडे, हाथी, आदिके अनेक समूह हैं । एक बनमें अनेक जातिके झोंका समुदाय है। बहुतसे पुद्गलपिण्डोंका मिलकर एक महापिण्ड बन जाता है ।
येषां तु शिष्यन्ते शिष्याः येन तच्छास्त्रमिति शास्त्रलक्षणं, तेषामेकमपि वाक्य शास्त्रव्यवहारभागभवेदन्यथाऽभिप्रेतमपिमाभूदिति यथोक्तलक्षणमेव शास्त्रमेतदवबोद्धव्यम्।
जिनके मतमे शास्त्र शब्दकी निरुक्ति करके ' शिष्यजन जिसके द्वारा सिखाये जायें" ऐसा शास्त्र शब्दका अर्थ निकाला जाता है, उनके अनुसार तो एक भी " उपयोगो लक्षणम्" ऐसा वाक्य शास्त्रव्यवहारको धारण करनेवाला हो जावेगा, क्योंकि एक वाक्यसे भी तो शिष्यों को शिक्षा मिलती है। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार कहोगे तो विवक्षिप्त ग्रंथ भी शास्त्र न होओ, इसलिये शास्त्र शङ्कका यौगिक अर्थ अच्छा नहीं, किंतु जैसा पूर्वमें कहा गया है, अध्यायोंका समुदाय, यही शासका लक्षण अच्छा समझना चाहिये ।
ततस्तदारम्भे युक्तं परापरगुरुप्रवाहस्याध्यानम् । तिस कारणसे उस शाम्नके आरम्भमें परापर गुरुप्रवाइका मकृष्ट ध्यान करना युक्त ही है।
अबतक विधास्पद विशेषणरूप साध्यका कारकहेतु मानकर घातिसमुदाय पातनको सिद्ध करते हुए वर्धमान स्वामी में परमगुरुपना सिद्ध किया था। किंतु इस समय विद्यास्पदको श्लोकवार्तिक ग्रंथका विशेषण करते हुए दूसरा प्रयोजन बतलाते हैं। अथवा । यधपूर्वार्थमिदं तत्वार्थश्लोकवार्तिकं न तदा वक्तव्यम्, सतामनादेयत्वप्रसंगात, स्वरुचिविरचितम्य प्रेक्षावतामनादरणीयत्वात् । पूर्वप्रसिद्धार्थ तु सुतरामतन्न वाच्यम् । पिष्टपेषणवद्वैयर्थ्यात् ।
__ यहां तर्क है कि यदि यह तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रंथ नवीन अपूर्व अथाको विषय करनेवाला है, तब तो विद्यानन्द स्वामीको यह ग्रन्थ नहीं कहना चाहिये । क्योंकि प्राचीन आम्नायके अनुसार न कहा हुआ होनेसे सज्जन लोगोंको उपादय नहीं हो सकेगा । चाहे किसी भी मनुण्यके द्वारा केवल अपनी रुचिसे रचे हुए नवीन कार्यका हिताहित विचार करनेवाले पुरुष आदर नहीं करते हैं। और यदि यह ग्रन्थ पूर्वके प्रसिद्ध अर्थको ही विषय करता है, सब तो सरलतासे प्राप्त हुआ कि सर्वथा ही यह नहीं कहना चाहिये । क्योंकि जाने हुए पदार्थोंको पुनः पुनः जानना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ है ।