Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिंतामणिः
शास्त्रामा सत्वश्यंकाप्यत्र न कार्याऽन्वर्थसंज्ञाकरणात । तच्चार्थविषयत्वाद्धि तवार्थी ग्रन्थः प्रसिद्धो न च शास्त्राभासस्य तत्त्वार्थविषयताविरोधात् । सर्वथैकान्तसम्भवात् ।
२०
I
- शास्त्र न होकर शास्त्रसरीखे दीखनेवाले झूठे किस्से, कहानी या हिंसा, मिथ्यात्वपोषक fast geariat शास्त्रामास कहते हैं । यों इस ग्रंथ में शाखाभासानेकी शंका भी न करना । क्योंकि इसकी संज्ञा " जैसा नाम वैसे अर्थ " को लिये हुए है । तचकरके निर्णीत किये गये जीव आदि अर्थोको विषय करनेवाला होनेसे निश्चय कर यह ग्रंथ तत्त्वार्थके नामसे प्रसिद्ध है। हाँ, जो कपिल, सुगत, आदिकों के सांख्यदर्शन, न्यायबिन्दु आदि शाखाभास हैं, उनमें ताका प्रतिपादन नहीं है। क्योंकि सर्वथा एकांतका सम्भव होनेसे परमार्थ तवार्थकी विषयता न होने के कारण उनको शास्त्रपनेका विरोध है ।
प्रसिद्धे च तच्चार्थस्य शाखत्वे तद्वार्त्तिकस्य शाखत्वं सिद्धमेव तदर्थत्वात् । वार्त्तिकं हि सूत्राणामनुपपत्तिचोदना तत्परिहारो विशेषाभिधानं प्रसिद्धं तत्कथमन्यार्थ भवेत् ।
जब कि उक्त प्रकार तत्त्वार्थसूत्रको शास्त्रपना अच्छी तरह सिद्ध हो चुका है, पुनः उसकी टीकारूप वार्त्तिकोंको शास्त्रपना सिद्ध हो ही गया । क्योंकि वे सूत्रोंका अर्थ स्पष्ट करने के लिये बनायी गयीं हैं। सूत्रोंके नहीं अवतार होने देनेकी तथा सूत्रोंके अर्थको न सिद्ध होने देनेकी ऊहापोह तर्कणा करना और उसका परिहार करना तथा अंथकारके हृदयगत अर्थसे भी अधिक अर्थको प्रतिपादन करना, ऐसे वाक्यको बार्तिक कहते हैं | यह वार्तिकका प्रसिद्ध लक्षण सर्ववादियोंको मान्य हैं । यो भला वह वार्त्तिक सूत्रके सिवाय अन्य पदार्थको कहने के लिये कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं ।
तदनेन तद्याख्यानस्य शास्त्रत्वं निवेदितम् ।
तिस कारण इस उपर्युक्त कथन करनेसे वार्त्तिकोंके व्याख्यानरूप ग्रंथके माध्यको भी शास्त्रपनेका निवेदन कर दिया गया है। यहां शंका है कि
--ww
ततोऽन्यत्र कुतः शास्त्रव्यवहार इति चेत् । तदेकदेशे शास्त्रत्वोपचारात् ।
उन सूत्र, वार्त्तिक और व्याख्यानके सिवाय अनेक ग्रंथ हैं। उनमें शास्त्रपनेका व्यवहार कैसे होगा ? यों कहने पर तो इसका उत्तर यह है कि वर्तमान में उपलब्ध जितने प्रामाणिक शास्त्र हैं, वे सब तस्वार्थशास्त्र के या उसके अर्थ ग्रंथके एकदेश हैं । अतः उनमें भी शास्त्रपनेका व्यवहार है । अत्र अवयव भिन्न नहीं हैं ।
यत्पुनर्द्वादशानं श्रुतं वदेवंविधानेकशास्त्र समूहरूपत्वान्महाशास्त्रमनेकस्कन्धाधारसम्हमहास्कन्धाधारवत् ।