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(झ) .. अर्थात् दशरथ ने साधुओं के समान 'श्रमणों को भी दान दिया। श्रमण शब्द का अर्थ जैन तथा बौद्ध साधु ही होता है। बौद्ध लोग रामायण काल में बौद्ध साधुओं का अस्तित्व नहीं मानते। अतएव वाल्मीकीय रामायण के 'श्रमण' शब्द का अर्थ केवल जैन साधु ही हो सकता है। इस प्रकार रामचन्द्र के समय में जैन धर्म का अस्तित्व सिद्ध है।
रामकालीन दूसरे प्रन्थ 'योगवाशिष्ट' के वैराग्य प्रकरण में तो राम स्पष्ट रूप से जैनधर्म का वर्णन निम्नलिखित श्लोक मे करते है
नाहं रामो न मे वाञ्छा, विषयेषु न च मे मनः । शान्तमास्थातुमिच्छामि, वीतरागो जिनो यथा ॥
मैं राम नहीं हूं, मेरे अन्दर कोई इच्छा नहीं है। विपयों में भी मेरा मन नहीं है। अब तो मैं वीतराग जिन के समान एक दम शान्त बन जाना चाहता हूं।
रामचन्द्र के समय में जैनधर्म के अस्तित्व का यह कैसा दृढ़ प्रमाण है !
इसके अतिरिक्त वेदों के अनेक मंत्रों में जैन तीर्थकरों का नाम श्राता है। किन्तु उनका अर्थ करने मे वह नामों का यौगिक अर्थ करके उनके अर्थ को बदल देते हैं। इस विषय में यजुर्वेद का केवल एक मंत्र उदाहरण रूप में यहां उपस्थित किया
जाता है , स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवार, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वति नस्तायो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
यजुर्वेद, अध्याय २५, अध्याय १६