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है 'अनेकान्त' बनाम स्याहाद याने कथंचित या अपेक्षासे कथन करना । अर्थात् जिनवाणी या जिनबचन, कभी एकबार सम्पूर्ण कथन ( पदार्थका निरूपण ) नहीं कर सकती, यह नियम है और यह मूलभूत योग्यता उसमें है, इसका उल्लंघन वह कभी नहीं कर सकती। फलतः क्रम-क्रमसे यह पदार्थों व उनमें रहने वाले धर्मोका कथन करती है। इतना ही नहीं, यह स्वभाव सभी वचनों या झाब्दोंमें पाया जाता है, चाहे वे दाद किसीके भी हो, शब्दों में इतनी ही सामर्थ्य व शक्ति है ऐसा समझना चाहिए । यही खास महिमा परमागमको है और शेष महिमाग पीछे बनाई जा चुकी हैं। किम्बहना । अर्हन्त के शरीरगत या सामान्यपूरूषके शरीरगत भाषावणाओंके निषेक क्रम-क्रमसे ही प्रवनिरूप या उपदेशप होते हैं। वे एकसाथ पूर्ण वस्तुको नहीं कह सकते यह साधारण नियम है जो टल नहीं सकता. अस्तु ।
परमागममें निश्चय-व्यवहारका अविरोष व सद्भाव
(ज्ञान व कधनको अपेक्षाले निर्णय ! अर्हन्तदेवका उपदेश कभी निश्चयरूप होता है याने द्रव्याथिकनयसे द्रव्यमात्र शुद्धरूप) का कवन वे करते हैं. जिससे निश्चयपना उसमें पाया जाता है। और कभी उनका उपदेश व्यवहाररूप होता है अथात् उसी द्रव्यकी संयोगी पर्यायका कथन पर्यायाथिकन्यसे दे करते हैं जो पर्यायाधित होनेसे व्यवहाररूप ( अनु ) है इत्यादि। इसी तरह कभी निश्चयनयसे अर्थात् द्रव्याथिकनबसे वे जीवद्रव्यको. बंध आदिसे रहित (एकत्व विभक्तरूप ) याने परके साथ तादाम्यसे रहित कहते हैं अतएव वह कथन निश्चयरूप ( शुद्ध ) है एवं कभी वे संयोगी पर्याय में पर्यायार्थिकमयकी अपेक्षा कर्मबंध सहित ( संयोगरूप) जीवको कहते हैं अतएव वह पर्यायाथित कथन होनेसे व्यवहाररूप है इत्यादि, तथापि निश्चय और व्यवहारका विरोध रहित अस्तित्व एक ही द्रव्य ( जोत्र )में अनेकान्तदृष्टिसे पाया जाता है कोई विरोध नहीं आता, दोनों बिरोधी धौंका सहअस्तित्त्व ( सहावस्थिति ) एक जगह एककाल वराबर पाया जा सकता है पाने दोनोंकी परस्पर संधि रहती है। इसी प्रकार रागके साथ विराग भी निर्विरोध रह सकता है। एक ही जीवद्रव्यमें संयोगीपर्याय में पर्यायाथिकन यकी अपेक्षासे रागका रहना और द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे जोवद्रव्यमें राग जैसे दोषका जीवद्रव्यके साथ तादात्म्यरूपसे नहीं रहमा दोनों विरोधी चीजें पाई जाती हैं इत्यादि । यह निश्चय-व्यवहारका सद्भाव समझना चाहिये । सर्वत्र मयोंके आधारसे अनेक धर्म वस्तुमें निराबाध सिद्ध हो जाते हैं। परमागम या दिव्यध्वनिमें उपदेश निश्चय और व्यवहार दो रूप होता है।
१. जं सुतं जियउत्तं श्रनहारो तह य जाण परमत्थो ।
त जायऊण जोई लहइ मुई खवह मलपुंज ।। ६३३ --सूत्रपाहुइ, कुन्दकुन्दाचार्य
अर्थ-जिन भगवान् या अहम्त देवको वाणी या उपदेश निश्चय और व्यवहार दो रूप होता है इसलिये जो जीव | योगी ) उस उपदेशको प्रथाविधि (निश्चयको निश्चयरूप और व्यवहारको व्यवहाररूप } जान लेता है वह कमल ( कर्मबंधन) को नष्ट करके आत्मिक सच्चे सुखको प्राप्त कर लेता है, अन्यथा नहीं। यह विवको सम्पादृष्टि ही कर सकता है, दूसरे एकान्ती मिथ्यादृष्टि नहीं कर सकते, उनमें बह