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१. सम्यग्दर्शनाधिकार नैमित्तिक नहीं है, यह निश्चित है। इसी तरह प्रारम्भिक अवस्था ( दर्शनकाल ) में वे वचन स्पष्ट साक्षर या निर्मात न होनेसे अनुभयरूप हैं। पश्चात् वे ही बचन स्पष्ट साधार निर्णीत हो जानेसे सत्यरूप हैं ऐसा निर्णय समझ लेना चाहिये। विशेष खुलासा वक्ष्यमाण है । भगवान्को दिव्यध्वनि (धर्मोपदेश ) जब नियमित बिना इच्छा, कषाय या अभिप्रायके स्वभावतः चार बार ( प्रातःकाल, मध्याहकाल, सायंकाल, अर्धरात्रिको छह-छह घड़ी तक) निकलती है तब वह प्रारम्भमें अस्पष्ट अक्षररहित अनिर्णीत निकलती है ( कर्णतक न पहुँचे तब तक ) ज्ञानरूप होती है। पश्चात् जब थोताओंके कर्ण में वह ध्वनि पहुँचती है तब वह स्पष्ट रूपसे अक्षर-पदसहित परिणत होकर जानी जातो है--समझ में आती है अत्तएव उसको 'सत्यबचनरूप कहते हैं। यहाँ पर ऐसा भेद समझना चाहिये कि यह सिर्फ मागध जातिके देवोंका अतिशय नहीं है किन्तु वस्तुका स्वभाव है, उन भावावर्गणाओंमें स्वयं सब भाषाओं ( वचनों के वोज हैं, उपादानता है अताब के अनेक भाषामा परिणम जाती हैं और श्रोतागण अपनी-अपनी भाषामें समझ लेते हैं। फलत: वे अक्षररूप और अमक्षररूप ( अक्षरसहित व अक्षररहित ) दोनों प्रकारको होती हैं, यह तात्पर्य है। मागध' जातिके देव, सिर्फ दियध्वनिको विस्ताररूप करते हैं और भगवानकी स्तुति करते रहते हैं । अतएव 'अर्धमागधीभाषा'का अर्थ यही है कि दिव्यध्वनि ( जिनवामी )को आधा और दुरतक बढ़ा देना याने पूरे समोशरण और उसके बाहिर भी पहुँचा देना-ध्वनि-विस्तारक यंत्रकी तरह आवाज बढ़ा देना इत्यादि । अर्धमागधी भाषाका दूसरा अर्थ भी किया जाता है जो विचारणीय है।
निश्चय व व्यवहारकी दशा * वाणी या उपदेश सब; व्यवहार रूप है कारण कि पदार्थोंका बोध जीवोंको बचनों या शब्दोंको सहायतासे ही होता है । अतएव पराश्रितताके नाते सब व्यवहारकोटिमें आजाता है। ज्ञानकी दशा निश्चयरूप है क्योंकि वह बिना किसी इन्द्रियादि परकी सहायतासे होता है अतः वह स्वाश्रित है ( आत्मामात्रके आश्रित है। ऐसी स्थिति में निश्चय और व्यवहारको ठीक-ठीक समझना चाहिये। परकी ( शब्दादिक या इन्द्रियादिकको ) सहायता लेना ही ज्ञानकी व्यवहार .. दशा है ऐसा समझना चाहिये, इत्यादि
अथवा शब्द स्वयं अपनेको कहते हैं अतः निस्त्रयरूप हैं और पर ( ज्ञेयों पदार्थों को कहते हैं अत: व्यवहाररूप हैं । इसी तरह ज्ञान स्वयं अपने को जानता है अत: निश्चयरूप है और पर ( शेयों)को जानता है यह व्यवहार रूप है। ऐसा निर्धार समझना चाहिये ।
परमागम ( दिव्यध्वनि )की महिमा यद्यपि परमागम या जिनवाणी में अनेक विशेषताएँ----महिमाएँ हैं तथापि आचार्य महाराजने इस श्लोकद्वारा एक ही मुख्य महिमा बतलाई है जो मूलभूत या वीजभूत है और वह
१. मागधाः स्तुतिपाठकाः, इत्यमरः ।