Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २
विशेषार्थ-मूल प्रकृतियां आठ हैं। जिनकी सादि-अनादि प्ररूपणा में विशेषता है, उसका तो पृथक् और शेष के लिये सामान्य निर्देश कर दिया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
वेदनीय और मोहनीय कर्म की उदीरणा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार की है । वह इस प्रकार-वेदनीयकर्म की उदीरणा छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होती है और उसके बाद तद्योग्य अध्यवसायों का अभाव होने से नहीं होती है तथा मोहनीयकर्म की उदीरणा क्षपकणि में चरम आवलिका न्यून सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के कालपर्यन्त होती है और उसके बाद नहीं होती है। जिससे अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान से गिरने पर वेदनीय की और उपशांतमोहगुणस्थान से गिरने पर मोहनीय की उदीरणा प्रारम्भ होती है, इसलिये वह सादि है, अभी तक जिसने उस-उस गुणस्थान को प्राप्त नहीं किया, उसके अनादि, अभव्य की अपेक्षा ध्र व और भव्य की अपेक्षा अध्र व है। ___ आयु की उदीरणा सादि और अध्र व है। क्योंकि उदयावलिका सकल करण के अयोग्य होने से पर्यन्त आवलिका में आयुकर्म की उदीरणा अवश्य नहीं होता है । इसलिये अध्र व-सांत है और पुनः परभव में उत्पत्ति के प्रथम समय में प्रवर्तमान होने से सादि है।
उक्त तीन प्रकृतियों से शेष रही ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र और अंतराय इन पांच मूल कर्म प्रकृतियों की उदीरणा अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार की है। वह इस प्रकार-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय की उदीरणा बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान की चरम आवलिका शेष न रहे, वहाँ तक सर्व जीवों को और नाम तथा गोत्र की उदीरणा सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त सर्व जीवों को अवश्य होती है, इसलिये इन पांच मूल कर्म प्रकृतियों की उदोरणा अनादि है। उन गुणस्थानों से पतन का अभाव होने से सादि नहीं है। अभव्य की अपेक्षा ध्रुव और भव्य जो बारहवें
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