Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
५४
पंचसंग्रह : ८
अल्पातिअल्प मनुष्यानुपूर्वी की स्थिति की सत्ता वाला एकेन्द्रिय एकेन्द्रिय भव में से निकलकर मनुष्य में उत्पन्न हो । विग्रहगति में वर्तमान वह मनुष्य अपनी आयु के तीसरे समय में मनुष्यानुपूर्वी की जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है । तथा
--
अपर्याप्तनाम की अति जघन्य स्थिति की सत्ता वाला एकेन्द्रिय एकेन्द्रिय भव में से निकलकर अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो । भव के प्रथम समय से लेकर बड़े अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त पर्याप्त नामकर्म का बन्ध करे और उसके बाद अपर्याप्त नामकर्म बांधना प्रारम्भ करे तो बंधावलिका के चरम समय में पूर्वबद्ध उस अपर्याप्तनामकर्म की जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है ।
सातावेदनीय की अति जघन्य स्थिति की सत्ता वाला एकेन्द्रिय एकेन्द्रियभव में से निकलकर पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो । उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर सातावेदनीय का अनुभव करता हुआ बड़े अन्तमुहूर्त पर्यन्त असातावेदनीय को बांधे, उसके बाद पुनः साता को बांधना प्रारम्भ करे तो बंधावलिका के चरम समय में पूर्वबद्ध सातावेदनीय की जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है ।
इसा प्रकार असातावेदनीय को भी जघन्य स्थिति उदीरणा कहना चाहिये | मात्र सातावेदनीय के स्थान में असातावेदनीय और असातावेदनीय के स्थान पर सातावेदनीय पद कहना चाहिये । तथाअमणागयस्स चिरठिइअन्ते देवस्स नारयस्स वा । तदुवंगगईणं तइयसमयंमि ||३५||
आणुपुव्विणं
शब्दार्थ - अमणागयस्स – असंज्ञी पंचेन्द्रिय में से आया हुआ, चिरठि - इअन्ते – दीर्घ स्थिति के अन्त में, देवस्स - देव के, नारयस्सा- - नारक के, वा- - अथवा, तदुवंगगईणं- तद् (वैक्रिय) अंगोपांग, देवगति, नरकगति, आगुपुव्विगं - आनुपूर्वी की, तइयसमयमि- तीसरे समय में ।
गाथायें - असंज्ञी पंचेन्द्रिय में से आये हुए देव अथवा नारक के अपनी-अपनी आयु की दीर्घ स्थिति के अन्त में वैक्रिय अंगोपांग,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org