Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ८
विशेषार्थ - पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सातावेदनीय' सुस्वरनाम, देवगति, वैक्रियसप्तक और उच्छ्वासनाम इन पन्द्रह प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त, उत्कृष्टस्थिति वाला (तेतीस सागरोपम की आयु वाला) और सर्व विशुद्ध परिणामी देव करता है। क्योंकि ये सभी पुण्यप्रकृतियां हैं, जिससे उनके उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा पुण्य के तीव्र प्रकर्ष वाला अनुत्तरवासी देव ही करता है । तथा
सम्मत्तमी सगाणं से काले गहिहिइत्ति मिच्छत्त । हासरईणं पज्जत्तगस्स सहसारदेवस्स ॥ ६१॥
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शब्दार्थ- सम्मत्तमीसगाणं- सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की, से काले - तत्काल बाद के समय में, गहिहिइत्ति - प्राप्त करेगा, मिच्छत्त मिथ्यात्व को, हासरईणं - हास्य और रति की, पज्जत्तगस्स - पर्याप्त के, सहसार देवस्स - सहस्रार कल्प के देव के ।
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गाथार्थ - जो जीव बाद के समय में मिथ्यात्व प्राप्त करेगा, उसे सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय की तथा पर्याप्त सहस्रारकल्प के देव के हास्य और रति की उत्कृष्ट अनुभाग - उदीरणा होती है ।
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विशेषार्थ - तत्काल - बाद के समय में ही मिथ्यात्व प्राप्त करने वाले सर्वसंक्लिष्टपरिणामी सम्यक्त्वमोहनीय के उदय वाले को सम्यक्त्वमोहनीय की और मिश्रमोहनीय के उदय वाले को मिश्रमोहनीय के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा होती है । इसका कारण यह है कि मिथ्यात्व को प्राप्त करने वाला जीव तीव्र संक्लेश वाला होता है,
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१ उत्कृष्ट- अनुत्कृष्ट आदि भंगों के प्रसंग में सातावेदनीय के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा सर्वार्थसिद्ध महाविमान में उत्पन्न हो, तब प्रथम समय में कही है और यहां पर्याप्त अवस्था में बताई है । विद्वान स्पष्ट करने की कृपा करें ।
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