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पंचसंग्रह ८
शब्दार्थ- पोग्गल विवागियाणं- पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के, भवाइसमये -भव के आदि समय में, विसेसं - विशेष यह है कि, उरलस्स -- औदारिक षट्क की, सुहुमापज्जो — सूक्ष्न अपर्याप्त, वाऊ -- वायुकायिक, बादरपज्जत्त-बादर पर्याप्त, वेउब्वे - वैक्रियषट्क की ।
गाथार्थ - पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा भव के आदि समय में होती है । लेकिन विशेष यह है कि औदारिकषट्क की सूक्ष्म अपर्याप्त वायुकायिक और वैक्रियषट्क की बादर पर्याप्त वायुकायिक करता है ।
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विशेषार्थ - पुद्गल के माध्यम से जिन प्रकृतियों के विपाक - फल को जीव अनुभव करता है उन सभी पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा भव - जन्म के प्रथम समय में होती है । इस सामान्य कथन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
औदारिकषट्क के जघन्य अनुभाग की उदीरणा अल्प आयु वाला अपर्याप्त वायुकायिक जीव भव के प्रथम समय में करता है और वैक्रियषट्क के जघन्य अनुभाग की उदीरणा अल्प आयु वाला बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव करता है। क्योंकि वैक्रियशरीर बादर पर्याप्त वायुकाय के ही होता है । इसीलिये बादर पर्याप्त का ग्रहण किया है । यहाँ षट्क में अंगोपांग का निषेध करने का कारण यह है - वायुकायिक जीव एकेन्द्रिय वाले हैं और एकेन्द्रिय जीव के अंगोपांग नामकर्म का उदय नहीं होता है ।
अप्पाऊ वेइंदि उरलंगे वेइंदि उरलंगे नारओ तदियरंगे । निल्लेवियवेउवा असण्णणो आगओ कूरो ||७४ || शब्दार्थ- - अप्पाऊ - अल्प आयु वाला, बेइंदि द्वीन्द्रिय जीव, उग्लंगे - औदारिक- अगोपांग के, नारओ-नारक, तदियरंगे- उससे इतर अंगोपांग (क्रिय अंगोपांग) के, निल्लेवियवे जव्वा - जिसने वैक्रिय शरीर की उवलना की है, असणणो - असंज्ञी से, आगओ- -आया हुआ, कूरो- क्रूर गाथार्थ - अल्प आयु वाला द्वीन्द्रिय जीव औदारिक अंगो
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