Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८७
१२१
चायु) की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी आठ वर्ष की आयु वाला आठवें वर्ष में वर्तमान क्रमश: मनुष्य और तिर्यंच जानना चाहिये। विशेषार्थ-जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति वाला गुरु असाता-दुःख से आक्रान्त देव और नारक अनुक्रम से देवायु, नरकायु की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी है । इसका तात्पर्य यह है कि दस हजार वर्ष की आयु वाला अत्यन्त चरम दुःख के उदय में वर्तमान अर्थात् दुःखी देव देवायु की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी है क्योंकि पुण्य का प्रकर्ष अल्प होने से अल्प आयु वाला देव दुःखी हो सकता है और मित्रवियोगादि के कारण तीव्र दुःखोदय भी संभव है तथा तीव्र दुःख आयु की प्रबल उदीरणा होने में कारण है, इसीलिये अल्प आयु वाले देव का ग्रहण किया है तथा तेतीस सागरोपम की आयु वाला अत्यन्त दु:खी नारक नरकायु की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा करता है। क्योंकि अधिक दुःख का अनुभव करने वाला अधिक पुद्गलों का क्षय करता है, इसलिये उसका ग्रहण किया है तथा इतरतिर्यंचायु, मनुष्यायु की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी अनुक्रम से आठ वर्ष की आयु वाला आठवें वर्ष में वर्तमान अत्यन्त दुःखी तिर्यंच और मनुष्य जानना चाहिये । तथा
एगतेणं चिय जा तिरिक्ख जोग्गाऊ ताण ते चेव । नियनियनामविसिट्ठा अपज्जनामस्स मणु सुद्धो ॥८७।।
शब्दार्थ-एगंतेणं चिय -- एकान्त रूप से ही, जा-जो, तिरिक्खजोग्गाऊ-तिर्यंचप्रायोग्य, ताण----उनकी, ते चेव-वही, नियनियनामविसिट्ठा-अपने-अपने विशिष्ट नाम वाले, अपज्जनामस्स-अपर्याप्त नाम की, मणु-मनुष्य, सुद्धो-विशुद्ध ।
गाथार्थ-एकान्त रूप से तिर्यंचगति उदयप्रायोग्य प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा के स्वामी उस-उस विशिष्ट नामवाले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org