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उदी रणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८४, ८५ उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा होती है तथा वह गुणितकर्माश जीव के होती है, यह समझना चाहिये । तथा
वेयणियाण पमत्तो अपमत्तत्तं जया उ पडिवज्जे । संघयणपणगतणुदुगुज्जोयाणं तु अपमत्तो ॥८४॥
शब्दार्थ-वेणियाण-वेदनीय की, पमत्तो-प्रमत्तसंयत, अपमत्तत्तअप्रमत्तत्व को, जया-जब, उ-ही, पडिवज्जे-प्राप्त करने वाला, संघय गपणग-संहननपंचक, तणुदुगुज्जोयाणं-तनुद्विक और उद्योत का, तु-और, अपमत्तो-अप्रमत्तसंयत ।
गाथार्थ--वेदनीय की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी अप्रमत्तत्व प्राप्त करने वाला प्रमत्त है तथा संहननपंचक, तनुद्विक और उद्योत का उत्कृष्टप्रदेशोदीरक अप्रमत्तसंयत है। विशेषार्थ-जो बाद के (आगे के) समय में अप्रमत्तत्व प्राप्त करेगा ऐसा प्रमत्तसंयत साता-असाता रूप वेदनीयकर्म की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी है। क्योंकि उसके सर्वविशुद्ध परिणाम होते हैं और विशुद्ध परिणामों से उनकी उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा होती है तथा प्रथम संहनन के सिवाय शेष पांच संहनन, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक और उद्योत नामकर्म की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी अप्रमत्तसंयत है। तथा
तिरियगईए देसो अणुपुन्विगईण खाइयो सम्मो। दुभगाईनीआणं विरइ अब्भुट्ठिओ सम्मो ॥८॥
शब्दार्थ-तिरियगईए-तियंचगति की, देसो-देशविरत, अणुपुविगईण-आनुपूर्वी और गतियों का, खाइयो सम्मो–क्षायिक सम्यग्दृष्टि, दुभगाई नोआगं-दुर्भग आदि और नीचगोत्र की, विरइ-विरति, अब्भुटिओ-सन्मुख हुआ, सम्मो-सम्यग्दृष्टि ।
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