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उदोरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८८
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काल (निरोध काल) में सयोगिकेवली के होती है तथा शेष प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा सर्वविशुद्ध परिणाम वाले के होती है।
विशेषार्थ-जिन प्रकृतियों के उदीरक चरम समय में वर्तमान सयोगिकेवली हैं ऐसी मनुष्यगति, पंवेन्द्र प्रजाति, तैजससप्ता, औदारिकसप्तक, संस्थानषटक, प्रथम संहनन, वर्णादि बीस, अगुरुलबु, उपघात, पराघात, विहायोगतिद्विक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशःकीति, निर्माण, तीर्थंकर और उच्चगोत्र रूप बासठ प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा करने वाले चरम समय में वर्तमान सयोगिकेवली हैं।
सुस्वर, दुःस्वर की स्वर के निरोधकाल में और उच्छवासनाम की उच्छवास के निरोधकाल में सयोगिकेवली उत्कृष्ट प्रदेशोदोरणा करते हैं तथा पूर्वोक्त से शेष रहो जिन प्रकृतियों को उत्कृष्ट प्रदेशोदोरणा के स्वामो नहीं कहे हों, उन प्रकृतियों को उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा उस-उस प्रकृति के उदय वाले सर्व विशुद्ध परिणामो जानना चाहिये । जिसका आशय यह है कि शेष प्रकृतियों में पाँच अंतराय और सम्यक्त्वमोहनोय कर्म रहता है। इनमे से अंतराय की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा बारहवें गुणस्थान को समयाधिक आवलिका शेष रहे तब गुणितकाश जोव के होतो है ओर मिनाहनोय कर्म जब सर्वसंक्रम द्वारा सम्यक्त्वमोहनीय में संक्रमित हो तब सम्यक्त्वमोहनीय को उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होतो है, मित्रमोहनाय संक्रमित होने के बाद संक्रमावलिका के अनन्तर सम्यस्त्वमोहनाय को उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा गुणितकर्माश के संभव है।
इस प्रकार से उत्कृष्ट प्रदेशोदोरणास्वामित्व जानना चाहिये। अब जघन्य प्रदेशोदीरणास्वामित्व का कथन करते हैं।
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