Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१२२
पंचसंग्रह : ८ तिर्यंच हैं तथा अपर्याप्तनाम की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी विशुद्ध परिणाम वाला मनुष्य है ।
विशेषार्थ-जिन प्रकृतियों का एकान्ततः तिर्यंचगति में ही उदय हो ऐसी एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन आठ प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा के स्वामी उस-उस नाम वाले तिर्यंच ही हैं। जैसे कि एकेन्द्रियजाति और स्थावर नाम की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी अपने योग्य सर्वविशुद्ध बादर एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक, आतपनाम की की खर बादर पृथ्वीकायिक, सूक्ष्मनाम की पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, साधारणनाम की साधारण वनस्पति और विकलेन्द्रियजाति की विकलेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा के स्वामी हैं। ये सभी अपनेअपने योग्य उत्कृष्ट विशुद्धि में वर्तमान जीव उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा के स्वामी समझना चाहिये । तथा
अपर्याप्तनाम की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा का स्वामी अपर्याप्तावस्था के चरम समय में वर्तमान विशुद्ध परिणाम वाला संमूच्छिम अपर्याप्त मनुष्य जानना चाहिये । तथा
जोगंतूदीरणाणं जोगते दुसरसुसरसासाणं । नियगंते केवलीणं सव्वविसुद्धस्स सेसाणं ॥८॥
शब्दार्थ -- जोगंतुदीरणाणं—सयोगि के अंत में उदीरणा योग्य की, जोगते-चरम समय में वर्तमान सयोगिकेवली के, दुसरसुसरसासाणं-- दुःस्वर, सुस्वर उच्छ्वास की, नियगंते –उनके अंतकाल में, केवलोणं-केवली के, सव्वविसुद्धस्स–सर्वविशुद्ध परिणाम वाले के, सेसाणं-शेष प्रकृतियों की।
गावार्थ-सयोगि के अंत में उदीरणायोग्य की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा चरम समय में वर्तमान सयोगिकेवली के तथा दुःस्वर, सुस्वर और उच्छवास नाम की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा उनके अंत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org