Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 159
________________ १२४ पं त्रसंग्रह : ८ जघन्य प्रदेशोदीरणास्वामित्व | तप्पाओगकिलिट्ठा सवाण होंति खवियकम्मंसा । ओहीणं तव्वेई मंदाए सुही य आऊण ॥८६॥ शब्दार्थ-तप्पाओगकि लिट्ठा-तर योग्य क्लिष्टपरिणाम वाला सव्वाण-सब प्रकृतियों की, होति है, अवियकम्सा -क्षषितकांश जीव, ओहोणं-अवधिद्विक का, तवेई-टनका वेदक, संत्राए-जघन्य, सुहीसुखी, य-और, आऊणं -- आयु की । गाथार्थ-तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणाम वाला क्षपितकर्मांश जीव सब प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशोदीरणा का स्वामी है। उनमें अवधिद्विक का तवेदक और आयु का सुखी जीव जानना चाहिये। विशेषार्थ-जो जीव जिस कर्मप्रकृति के उदीरक हैं और उन प्रकृतियों की उदीरणा करने वालों में अतिक्लिष्टपरिणाम वाले हैं यानि जो जीव अतिक्लिष्ट परिणाम से जिन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करते हैं, ऐसे क्षपितकर्मांश जीव उन प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशोदीरणा के स्वामी हैं। जैसे कि अवधिज्ञानावरण वजित चार ज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरणजित तीन दर्शनावरण, पच्चीस चारित्रमोहनीय की प्रकृति, मिथ्यात्व, दो वेदनीय, इन प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशोदीरणा का स्वामी पर्याप्त अतिक्लिष्टपरिणामी मिथ्या दृष्टि जानना चाहिये। निद्रापंचक का तत्प्रायोग्य क्लिष्टपरिणामी पर्याप्त संज्ञी, सम्यक्त्वमोहनीय का मिथ्यात्वगुणस्थान में जाने के लिये तत्पर सम्यक्त्वमोहनीय का उदय वाला जीव, मिश्रमोहनीय का मिथ्यात्व में जाने के सन्मुख हुआ मिश्रमोहनीय का उदय वाला जीव जघन्य प्रदेशोदीरक है। चार गति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकसप्तक, वैक्रियसप्तक, तैजससप्तक, संस्थानषट्क, संहननषट्क, वर्णादि बीस, पराघात, उपघात, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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