Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 224
________________ उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १५ १८६ प्रकृति नाम जघन्य उत्कृष्ट अजघन्य अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट प्रदे. जघन्य प्रदेशो उदी. स्वा. | दीरणा स्वा. उद्योत | २ सर्व विशुद्ध | अति संक्लिष्ट उत्तर-शरीरी पर्याप्त मिथ्याअप्रमत्तयति दष्टि संज्ञी -RD २ २ २ २ उच्छ्वास, सुस्वर दुःस्वर स्वरनिरोध चरम समयवर्ती सयोगी तीर्थंकरनाम २ २ २ २ चरम समय- आयोजिकाकरण | वर्ती सयोगी के पूर्व तीर्थंकर केवली स्थावर, । २ । २ । २ । २ । अति विशुद्ध | अति संक्लिष्ट क्रमशः पर्याप्त क्रमशः पर्याप्त पृथ्वीकाय, | स्थावर सूक्ष्म सूक्ष्म और | साधारण साधारण साधारण अपर्याप्त २ २ २ २ चरम समय- अति संक्लिष्ट वर्तीसमूच्छिम चरम-समयवर्ती । मनुष्य अपर्याप्त गर्भज मनुष्य दुर्भग, अना- २ । २ देय, अयश :कीर्ति २ . २ । संयमाभिमुख अति संक्लिष्ट चरम समय- मिथ्यादृष्टि वर्ती अविरत पर्याप्त संज्ञी सम्यक्त्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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