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उदीरणाक रण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८६
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अगुरुलघु, उच्छ वास, उद्योत, विहायोगतिद्विक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, उच्चगोत्र, नीचगोत्र, निर्माण और पांच अंतराय इन नवासी प्रकृतियों की जघन्य प्रदेशोदीरणा का स्वामी अति संक्लिष्टपरिणामी पर्याप्त संज्ञी जीव समझना चाहिये।
आहारकसप्तक की उसका उदय वाला तत्प्रायोग्यक्लिष्टपरिणामी (प्रमत्तसंयत) जीव, चार आनुपूर्वी की तत्प्रायोग्य संक्लिप्ट परिणामी जीव, आतप की सर्व संक्लिष्ट खर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियजाति, स्थावर और साधारण की सर्वसंक्लिष्टपरिणामी बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्मनाम की सूक्ष्म, अपर्याप्तनाम की भव के चरम समय में वर्तमान अपर्याप्त मनुष्य, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति का अनुक्रम से सर्व संक्लिष्ट परिणाम वाला और भव के अन्त समय में वर्तमान द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जघन्य प्रदेशोदीरणा का स्वामी जानना चाहिये।
जब तक आयोजिकाकरण की शुरुआत नहीं हुई होती है तब तक यानि आयोजिकाकरण की शुरुआत होने के पहले तीर्थंकरनाम की जघन्य प्रदेशोदीरणा सयोगिकेवली भगवान करते हैं। ___ अवधिज्ञान-दर्शनावरण की जघन्य प्रदेशोदीरणा अवधिज्ञान और अवधिदर्शन वेदक यानि अवधिज्ञान जिसको उत्पन्न हुआ है, ऐसा अतिक्लिष्टपरिणाम वाला करता है। क्योंकि अवधिज्ञान उत्पन्न करते बहुत से पुद्गलों का क्षय होता है, इसलिये उसको अनुभव करने वाला यानि कि अवधिज्ञान वाला यहाँ ग्रहण किया है।
चार आयु की जघन्य प्रदेशोदीरणा अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार सुखी जीव करता है। उसमें नरकायु की दस हजार वर्ष का आयु वाला नारक करता है । क्योंकि जघन्य आयु वाला यह नारक अन्य नारकों की अपेक्षा सुखी है तथा शेष तीन आयु की जघन्य प्रदेशो
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