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पंचसंग्रह : पूर्वोक्त का सारांश यह है कि जैसे पुण्यप्रकृतियों का उत्कृष्ट विशुद्धि से तीव्र अनुभागबन्ध होता है और उसके बाद जैसे-जैसे विशुद्धि मन्द होती जाती है, वैसे-वैसे प्रकृतियों का अनुभागबन्ध भी हीन-हीन होता है तथा तीव्र विशुद्धि से पुण्यप्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा होती है और वह विशुद्धि जैसे-जैसे कम होती जाती है, वैसे-वैसे शुभ अनुभाग की उदीरणा हीन-हीन होती जाती है। किन्तु पाप प्रकृतियों के लिये इससे विपरीत प्ररूपणा जानना चाहिये । इसी प्रकार तीव्र रसबन्ध हो तब उदीरणा भी उत्कृष्ट रस (अनुभाग) की होती है और मन्द अनुभागबन्ध हो तब उदीरणा भी जघन्य अनुभाग की होती है। जैसे बन्ध के योग्य असंख्य अध्यवसायस्थान हैं, वैसे ही उदीरणा के योग्य भी असंख्यात अध्यवसायस्थान हैं और अध्यवसायों के अनुसार ही उदीरणा होती है। ___ इस प्रकार से अनुभाग-उदीरणा से सम्बन्धित विषयों का विचार करने से अनुभाग-उदीरणा की प्ररूपणा समाप्त हुई।1।।
अब प्रदेश उदीरणा की प्ररूपणा करने का अवसर प्राप्त है। अतः उसको प्रारम्भ करते हैं।
प्रदेश-उदीरणा प्रदेश-उदीरणा के दो अधिकार हैं- १. साद्यादि-प्ररूपणा और २. स्वामित्व प्ररूपणा। इनमें से साद्यादि प्ररूपणा के दो प्रकार हैं(१) मूल प्रकृति सम्बन्धी (२) उत्तर-प्रकृतिसम्बन्धी । उनमें से पहले मूल प्रकृति सम्बन्धी साद्यादि प्ररूपणा प्रारम्भ करते हैं।
१ अनुभागोदीरणा सम्बन्धी विवेचन का प्रारूप परिशिष्ट में देखिये।
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