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पंचसंग्रह : ८ हुए सर्वविशुद्ध प्रमत्तसंयत के और मोहनीय की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा उसकी उदीरणा के पर्यवसान–समाप्ति के समय सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में होती है। दोनों कर्मों की उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा नियत काल पर्यन्त प्रवर्तित होने से सादि-सांत है। उसके अतिरिक्त अन्य समस्त अनुत्कृष्ट है । वह अनुत्कृष्ट प्रदेशोदी रणा अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से गिरते वेदनीयकर्म की और उपशांतमोहगुणस्थान से गिरते मोहनीयकर्म की प्रारम्भ होती है, इसलिये सादि है। उस-उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया, उसकी अपेक्षा अनादि, अभव्य के ध्र व और भव्य के अध्र व जानना चाहिये।
इन सातों कर्मों के उक्त से शेष रहे जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट ये तीन विकल्प सादि और अध्र व इस तरह दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार इन सातों कर्मों की जघन्य प्रदेशोदीरणा संक्लिष्टपरिणामी मिथ्यादष्टि को होती है। संक्लेशपरिणाम से विशुद्धपरिणाम में आये हुए मिथ्या दृष्टि के अजघन्य होती है । इस प्रकार परावर्तित रूप से प्रवर्तमान होने से जघन्य, अजघन्य प्रदेशोदीरणा सादि सांत है और उत्कृष्ट विकल्प का विचार अनुत्कृष्ट के प्रसंग में किया जा चुका है। तथा
आयुकर्म के जघन्य, अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये चारों विकल्प आयु के अध्र वोदया प्रकृति होने से ही सादि और अध्र व इस तरह दो प्रकार के हैं।
इस प्रकार से मूलप्रकृतिविषयक साद्यादि प्ररूपणा करने के पश्चात् अब उत्तर प्रकृतियों सम्बन्धी साद्यादि प्ररूपणा करते हैं। उत्तर प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा तिविहा धुवोदयाणं मिच्छस्स च उबिहा अणुक्कोसा । सेसविगप्पा दुविहा सव्वविगप्पा य सेसाणं ॥८॥
शब्दार्थ-तिविहा- तीन प्रकार की, धुवोदयाणं-ध्र वोदया प्रकृतियों की, मिच्छस्स-मिथ्यात्व की, च उम्विहा-चार प्रकार की, अणुक्कोसा-अनु
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