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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८०
१११ प्रकृति के जघन्य अनुभाग की और पापप्रकृति बांधकर पुण्यप्रकृति बांधने पर पापप्रकृति के जघन्य अनुभाग की उदीरणा होती है। परावर्तमानभाव हो तब परिणाम की मंदता होती है, जिससे उस समय तीव्र विशुद्धि या तीव्र संक्लेश नहीं होता है। अतएव तीव्र रसबंध या तीव्र रस की उदीरणा नहीं होती है, किन्तु मंद रसबंध और मंद रस की उदीरणा होती है । ___ इस प्रकार से जघन्य अनुभाग-उदीरणा का स्वामित्व जानना चाहिये । अब समस्त कर्म प्रकृतियों के जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागोदीरणा के स्वामित्व का सामान्य से बोध कराने के लिये उपाय बताते हैं
परिणामप्रत्यय या भवप्रत्यय इन दोनों में से किस प्रत्यय-कारण से कर्म प्रकृतियों की उदीरणा होती है ? तथा जिस प्रकृति को उदीरणा हुई है, वह पुण्य प्रकृति है या पाप प्रकृति है ? और गाथागत अपि शब्द से पुद्गल, क्षेत्र, भव या जीव में किस विपाक वाली है ? इसका विचार करना चाहिये और इन सबका यथोचित विचार करके विपाकी-जघन्य अनुभाग-उदीरणा का या उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा का स्वामी कौन है, यह यथावत् समझ लेना चाहिये । जैसे कि परिणामप्रत्ययिक अनुभागोदीरणा प्रायः उत्कृष्ट होती है और भवप्रत्ययिक प्रायः जघन्य तथा शुभप्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा संक्लेश से और उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा विशुद्धि से होती है और अशुभ प्रकृतियों के जघन्य रस की उदीरणा विशुद्धि से तथा उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा संक्लेश से होती है। पुद्गलादि प्रत्ययों की जब प्रकर्षता-पुष्टता हो तब उत्कृष्ट और भव के प्रथम समय में जघन्य अनुभाग-उदोरणा होती है।
इस प्रकार प्रत्ययादि का यथावत् विचार कर उस-उस प्रकृति के उदय वाले को जघन्य या उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा के स्वामित्व का निर्णय कर लेना चाहिये।
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