Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७७
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अपनी आयु की उत्कृष्ट स्थिति में वर्तमान अर्थात् स्वप्रायोग्य उत्कृष्ट आयु वाला यानि पूर्वकोटि की आयु वाला आहारी भव के प्रथम समय में वर्तमान वही असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मध्य के चार संस्थान के जघन्य अनुभाग की उदीरणा का स्वामी है तथा सेवार्त और वज्रऋषभ नाराचसंहनन को छोड़कर बीच के चार संहनन के जघन्य अनुभाग की उदीरणा का स्वामी पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला भव के प्रथम समय में वर्तमान आहारी और विशुद्ध परिणाम वाला मनुष्य है । क्योंकि उक्त प्रकृतियां अशुभ हैं । उनकी जघन्य रसोदीरणा में विशुद्ध परिणाम हेतु हैं । दीर्घ आयु वाला विशुद्ध परिणामी होता है, इसीलिये यहाँ दीर्घायु वाले का ग्रहण किया है । तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अपेक्षा मनुष्य प्रायः अल्प बल वाले होते हैं, इसलिये उक्त अशुभ संहनन की जघन्य अनुभाग- उदीरणा के स्वामी के रूप में मनुष्य कहा है । तथा
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हुण्डोवघायसाहारणाण सुमो सुदीह पज्जत्तो । परघाए लहुपज्जो आयावुज्जोय तज्जोगो ॥७७॥
शब्दार्थ - हुण्डोवघायसाहारणाण - हुण्डक - संस्थान, उपघात, साधारण नाम का, सुमो सूक्ष्म, सुदोह - दीर्घस्थिति वाला, पज्जत्तो- पर्याप्त, परघाए - पराघात की, लहुपज्जो - शीघ्र पर्याप्त, आयावुज्जोय - आतप उद्योत का, तज्जोगो - तद्योग्य ।
गाथार्थ - हुण्डक संस्थान, उपघात और साधारण नाम के जघन्य अनुभाग की उदीरणा का स्वामी दीर्घस्थिति वाला पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय है | पराघात की जघन्य अनुभाग- उदीरणा का स्वामी शीघ्र पर्याप्त हुआ तथा आतप उद्योत की जघन्य अनुभागउदीरणा का स्वामी तद्योग्य पृथ्वीकाय है ।
विशेषार्थ - अपने योग्य दीर्घ आयु वाला अति विशुद्ध परिणामी पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय हुण्डक संस्थान, उपघात और साधारण नाम के
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