Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६७
उत्तरवेउब्विजई उज्जोयस्सायवस्स खरपुढवी । समएणुपुव्वीणं ॥ ६७ ॥
नियगगईणं भणिया
तइये
- उद्योत नाम
शब्दार्थ - उत्तरवेउब्विजई - उत्त र वैक्रिय यति, उज्जोयस्सका, आयवस्स - आतपनाम का, खरपुढवी --खर पृथ्वीकायिक, नियगईणंअपनी-अपनी गति के, भणिया कहे हैं, तइये पुथ्वीणं - आनुपूर्वी के।
तीसरे, समए - समय में,
गाथार्थ - उत्तरवै क्रिययति उद्योत नाम की, खर पृथ्वीकायिक आतप नाम की और अपनी-अपनी गति के जो उदीरक कहे हैं, वे ही भव के तीसरे समय में वर्तमान जीव आनुपूर्वीनाम की उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा के स्वामी हैं ।
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विशेषार्थ - वैक्रियशरीर की समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त सर्व विशुद्ध परिणाम वाला वैक्रियशरीरधारी यति उद्योतनामकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा का स्वामी है तथा सर्व विशुद्ध परिणामी, समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त और उत्कृष्ट आयु वाला खर बादर पृथ्वीकायिक जीव आतपनामकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा का स्वामी है तथा जिस-जिस गति के जो-जो जीव उदीरक कहे
१ यद्यपि आहारकशरीरी को भी उद्योत का उदय होता है तथा वैक्रिय से आहारकशरीर अधिक तेजस्वी होता है, लेकिन उसके उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा आहार शरीरी को न बताकर वैब्रियशरीरी को ही कही है । २ बृहत्संग्रहणी आदि ग्रन्थों में पृथ्वीकाय के अनेक भेद बताये हैं । उनमें खर - कठिन पृथ्वीकाय की ही उत्कृष्ट आयु होती है, इसीलिए उन जीवों को यहाँ ग्रहण किया है। सूर्य के विमान के नीचे रहे रत्नों के जीवों के ही आतप नाम का उदय होता है और वे खर पृथ्वीकाय हैं तथा यद्यपि शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त के आतप नाम का उदय हो सकता है, परन्तु उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा तो पर्याप्त के ही होती है, इसलिए यहाँ पृथ्वी काय के योग्य पर्याप्तियों से पर्याप्त का ग्रहण किया है
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