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उदीरणा करण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ प्रकृतियां हैं और सयोगिकेवली जैसे पुण्यशाली जीव हैं, जिससे उपयुक्त पुण्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा सयोगिकेवली गुणस्थान में बताई है । तथा
इतर-मति, श्रुत, मनपर्याय और केवल ज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, कर्कश-गुरु स्पर्श को छोड़कर शेष अशुभ वर्णादिसप्तक, अस्थिर और अशुभ रूप इकतीस अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा चारों गति के समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। क्योंकि ये सभी पाप प्रकृतियां हैं । अतः इनके उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा तीव्र संक्लेश से होती है और ऐसा तीव्र संक्लेश मिथ्यादृष्टियों के पर्याप्तावस्था में होता है। इसीलिए यहाँ पर्याप्त मिथ्यादृष्टि का ग्रहण किया है तथा तीव्र संक्लेश संज्ञी में होने से चारों गति के संज्ञी जीव समझना चाहिए। तथा___ अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा अवधिज्ञान–अवधि दर्शनलब्धि रहित चारों गति के तीव्र संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि के जानना चाहिये । अवधिज्ञान-दर्शनलब्धियुक्त जीवों के तो उनको उत्पन्न करते विशुद्ध परिणाम के कारण आवृत करने वाले कर्मों का अधिक रस क्षय होने से उत्कृष्ट रस सत्ता में रहना नहीं है, जिससे उत्कृष्ट रस की उदीरणा नहीं हो सकती है। इसीलिये अवधिलब्धिहीन के उत्कृष्ट अनुभागोदीरणा बताई है। ___ इस प्रकार से उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा का स्वामित्व जानना चाहिये। अब जघन्य अनुभाग-उदीरणा के स्वामियों का निर्देश करते हैं। जघन्य अनुभाग- उदीरणास्वामित्व
सुयकेवलिणो मइसुयचक्खुअचखुणुदीरणा मन्दा ।
विपुलपरमोहिगाणं मणनाणोहीदुगस्सा वि ॥६६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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