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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७२
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गाथार्थ-निद्रा-निद्रात्रिक के जघन्य अनुभाग की उदीरणा उत्कृष्ट विशुद्धि वाले प्रमत्तविरत के तथा वेदकसम्यक्त्व की उस प्रकृति के क्षयकाल में अन्तिम उदीरणा के समय होती है। विशेषार्थ-निद्रा-निद्रा, प्रचला प्रचला और स्त्यानद्धि के जघन्य अनुभाग की उदीरणा विशुद्धि वाले-अप्रमत्तसंयतगुणस्थान के अभिमुख प्रमत्तसंयत के होती है। क्योंकि स्त्यानद्धित्रिक का उदय छठे, प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त ही होता है । तथा
क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न करने के पहले मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय का क्षय करे और उसके बाद सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करते उसकी जब समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति सत्ता में शेष रहे तब होने वाली अन्तिम उदीरणा के काल में सम्यक्त्वमोहनीय के जघन्य अनुभाग की उदीरणा होती है और वह उदीरणा चारों गति में से किसी भी गति वाले विशुद्ध परिणामी जीव के होती है। क्योंकि सम्यक्त्वमोहनीय की अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति सत्ता में शेष रहे और आयु पूर्ण हो तो चाहे जिस गति में जाता है और उस अन्तमुहर्त प्रमाण स्थिति का क्षय कर डालता है। उसको क्षय करते-करते समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति शेष रहे तब सम्यक्त्वमोहनीय की अन्तिम उदीरणा होती है । और यह जघन्य उदीरणा विशुद्ध परिणाम वाले को समझना चाहिए। तथा
सम्मपडिवत्तिकाले पंचण्हवि संजमस्स चउचउसु । सम्माभिमुहो मीसे आऊण जहण्णठितिगोत्ति ॥७२।।
शब्दार्थ-सम्मपडिवत्तिकाले-सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय में, पंचहवि-पाँच की भी, संजमस्स-संयम की प्राप्ति काल में, चउचउसु-चारचार की, सम्माभिमुहो- सम्यक्त्व की प्राप्ति के अभिमुख, मोसे-मिश्रमोहनीय की, आऊण-आयु की, जहण्णठितिगोत्ति-जघन्य आयु-स्थिति वाला।
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