Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 133
________________ ६८ पंचसंग्रह : ८ शब्दार्थ-सुयकेवलिणो-श्रुतकेवली के, मइसुयचक्खुअचक्खुणुदीरणामति-श्रु तज्ञानावरण, चक्षु-अचक्ष दर्शनावरण की उदीरणा, मन्दा-जघन्य, विपुलपरमोहिगाणं-विपुलमति और परमावधिज्ञान वाले के, मणनाणोहीदुगस्सा-मनपर्यायज्ञानावरण और अवधिद्विक की, वि-तथा । गाथार्थ-मति-श्र तज्ञानावरण और चक्ष -अचक्ष दर्शनावरण के जघन्य अनुभाग की उदीरणा श्र तकेवली को तथा मनपर्यायज्ञानावरण और अवधिज्ञानावरण-अवधिदर्शनावरण की जघन्य अनुभाग-उदीरणा अनुक्रम से विपुलमति मनपर्यायज्ञान वाले एवं परमावधिज्ञान वाले के होती है। विशेषार्थ- इस गाथा से जघन्य अनुभाग-उदीरणा स्वामित्व की प्ररूपणा प्रारम्भ की है। जघन्य अनुभाग-उदीरणास्वामित्व के प्रसंग में यह ध्यान रखना चाहिये कि पापप्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा विशुद्धपरिणामों से और पुण्यप्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा संक्लेश परिणामों से होती है । किस प्रकृति की जघन्य अनुभाग की उदीरणा के योग्य विशुद्धि और संक्लेश कहाँ होता है, इसका विचार करके स्वामित्व प्ररूपणा करना चाहिये। कतिपय पापप्रकृतियों का जघन्य अनुभाग-उदीरणास्वामित्व इस प्रकार है-क्षीणकषायगुणस्थान की समयाधिक आवलिका स्थिति शेष रहे तब श्र तकेवली-चौदह पूर्वधर के मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण के जघन्य अनभाग की उदीरणा होती है तथा क्षीणकषायगुणस्थान की समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति शेष रहे तब विपुलमतिमनपर्यायज्ञानी के मनपर्यायज्ञानावरण के और परमावधिज्ञानी के अवधिज्ञान-दर्शनावरण के जघन्य अनुभाग की उदीरणा होती है । क्योंकि श्र तकेवली मनपर्यायज्ञानी और परमावधिज्ञानी के वह-वह ज्ञान जब उत्पन्न होता है तब तीव्र विशुद्धि के बल से अधिक अनुभाग का क्षय हुआ होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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