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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२
६१ जिससे सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा के बाद जिस समय में मिथ्यात्व में जाये, उस समय संभव है तथा समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त सहस्रारदेव के हास्य, रति की उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा होती है । तथा
गइहुण्डुवघायाणिट्ठखगतिदुसराइणीयगोयाणं । नेरइओ जेट्ठट्ठिइ मणुआ अंते अपज्जस्स ॥६२॥
शब्दार्थ - गइ-(नरक) गति, हुंडुवघायाणिखगति- हुंडसंस्थान, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, दुसराइ-दुःस्वर आदि, णीयगोयाणं-नीचगोत्र के, नेरइओ-नारक, जेट्टिइ-उत्कृष्ट स्थिति वाला, मणुआ-मनुष्य, अंते-अंत में, अपज्जस्स-अपर्याप्त नाम की।
गाथार्थ-नरकगति, हुण्डसंस्थान, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, दुःस्वरादि और नीचगोत्र के उत्कृष्ट अनुभाग का उदीरक उत्कृष्ट स्थिति वाला नारक है तथा अपर्याप्त नाम के उत्कृष्ट अनुभाग को उदीरणा अंत में मनुष्य करता है।
विशेषार्थ-नरकगति, हुण्डसंस्थान, उपघात नाम, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्तिनाम और नीचगोत्र इन नौ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा उत्कृष्ट आयु वाला और समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त अति संक्लिष्ट परिणामी नारक करता है । क्योंकि ये सभी पापप्रकृतियां हैं, जिससे इनके उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा के योग्य अति संक्लिष्टपरिणामी सातवीं नरकपृथ्वी का नारक जीव ही सम्भव है । उसके हो ऐसा तीव्र संक्लेश हो सकता है कि जिसके कारण उक्त प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभागउदीरणा हो। ___ अपर्याप्तनाम के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा का स्वामी अपर्याप्तावस्था के चरम समय में वर्तमान अपर्याप्त मनुष्य है । तथा
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