Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३८
५६ कायिक जीव उद्वलन योग्य होने से पूर्व अंतिम बार वैक्रियशरीर की विकूर्वणा करे तब उस षटक के उदय के अन्त समय में उनकी जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है। ___ इसका तात्पर्य यह हुआ कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन सागरोपम के सात में से दो भाग (२/७) प्रमाण वैक्रियषट्क को जघन्य स्थिति की सत्ता वाला पर्याप्त बादर वायुकायिक जीव अनेक बार वैक्रियशरीर की विकुर्वणा करके अन्तिम बार वैक्रियशरीर की विकुर्वणा प्रारम्भ करे तब उसके उदय के चरम समय में वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति-उदोरणा करता है। तत्पश्चात् अति हीन स्थिति की सत्ता वाले उस वैक्रियषट्क की उद्वलना सम्भव है।
एकेन्द्रिय के अंगोपांग का उदय न होने से वैक्रिय-अंगोपांग का ग्रहण नहीं किया है । तथा
चउरुवसमित्तु मोहं मिच्छं खविउं सुरोत्तमो होउं । उक्कोससंजमंते जहण्णगाहारगदुगाणं ॥३८।।
शब्दार्थ---चउरुवसमित्त -चार बार उपशम करके, मोहं – मोहनीय का, मिच्छं-मिथ्यात्व का, खविउं–क्षय करके, सुरोत्तमो --उत्तम देव, होउंहोकर, उक्कोससंजमंते-उत्कृष्ट काल तक संयम पालकर अन्त में, जहण्णगाहारगदूगाणं--आहारकद्विक की जघन्य (स्थिति-उदीरणा)।
गाथार्थ-मोहनीय का चार बार उपशम करके उसके बाद मिथ्यात्व का क्षय करके उत्तम देव में उत्पन्न होकर फिर मनुष्य में उत्पन्न हो, वहाँ उत्कृष्ट काल तक संयम पालकर अंत में आहारकद्विक की जघन्य स्थिति-उदीरणा करता है। विशेषार्थ-संसार में परिभ्रमण करते हुए चार बार मोहनीयकर्म का सर्वोपशम करके, तत्पश्चात् मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय
१ गाथा में ग्रहण किया गया 'भिच्छ' पद अन्य दर्शनमोहनीय का उपलक्षण
है। क्योंकि मिथ्यात्व का क्षय होने के बाद मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय का अवश्य क्षय होता है।
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