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उदीरणाकरण प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४४
होता है, जह
शब्दार्थ - घायं - घातित्व, ठाणं -- स्थान, च- और, सन्वघाईण- सर्वघाति प्रकृतियों का, होइ बंध में, अग्घाईन - अघाति प्रकृतियों का, ठाणं- स्थान, भणिभो कहेंगे, विसेोऽत्थ- जो विशेष है उसको यहाँ ।
गाथार्थ - सर्वघाति प्रकृतियों का घातित्व और स्थान की अपेक्षा जैसा बंध में कहा है, वैसा उदीरणा में भी जानना चाहिये । अघाति प्रकृतियों का स्थान की अपेक्षा जो विशेष है, उसको यहाँ कहेंगे ।
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विशेषार्थ - केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, आदि की बारह कषाय, मिथ्यात्वमोहनीय और पांच निद्रारूप सर्वधाति प्रकृतियों के रस का घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा की अपेक्षा विचार करें तो उन प्रकृतियों का बंध में जैसा रस होता है, वैसा ही उदीरणा में भी समझना चाहिये ।
६.७
पडुच्च — अपेक्षा, जैसा, बंधे
पडुच्च - अपेक्षा,
इसका तात्पर्य यह हुआ कि जैसे इन प्रकृतियों का बंध में चतु:स्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक रूप तीन प्रकार का रस कहा है, एवं उन तीनों प्रकार के रस को जैसे सर्वघाति बताया है, उसी प्रकार उदीरणा में भी जानना चाहिये । यानि उन प्रकृतियों के चतुः, त्रि और द्विस्थानक रस को उदीरणा होती है और वह सर्वघाति ही होता है । मात्र उत्कृष्ट रस की उदीरणा में चतुःस्थानक ही और अनुत्कृष्ट- मध्यम रस की उदीरणा में तीनों प्रकार का रस होता है ।
इस प्रकार से घाति प्रकृतियों सम्बन्धी विशेष जानना चाहिये । अब एक सौ ग्यारह अघाती प्रकृतियों की उदीरणा में स्थानाश्रयी विशेष कथन करते हैं ।
अघाति प्रकृतियों का स्थानाश्रित विशेष
थावरचउ आयवउरलसत्ततिरिविगल मणुयतियगाणं ।
नग्गोहाइचउन्ह
एगिदिउसभाइछपि ॥ ४४ ॥
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