Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५०
७५
विरति आदि गुणस्थान वालों के अमुक प्रकार का और गुण बिना के जीवों के अमुकप्रकार का वोर्यव्यापार होता है । वैक्रिय आहारक शरीर का परिणाम भी अमुक-अमुक प्रकृतियों की उदीरणा में कारण है। जिससे परिणाम का अर्थ जैसे अध्यवसाय होता है, उसी प्रकार यहाँ शरीर आदि का परिणाम ये अर्थ भी होता है तथा जैसा और जितना रस बँधता है, वैसा और उतना ही रस उदीरित होता है, ऐसा कुछ नहीं है। क्योंकि कितनी ही प्रकृतियों का सर्वघाती और चतुःस्थानक रस बँधता है, किन्तु वे सर्वघातिरस और चतु:स्थानक रस से ही उदय में आयें ऐसा नहीं है। बंध में चाहे जैसा रस हो लेकिन उदय-उदीरणा में अमुक प्रकार का ही रस होता है। यानि बँधे हुए रस का विपरिणाम कर, फेरफार कर, हानि-वृद्धि कर उदय में लाता है। जिससे परिणाम का अर्थ 'अन्यथाभाव करना' ऐसा भी होता है। इस प्रकार वीर्यव्यापार होने में भव आदि अनेक कारण होने से उदीरणा भी अनेक रीति से प्रवर्तित होती है । वीर्यव्यापार मुख्य कारण है, शेष सभी अवान्तर कारण हैं यह समझना चाहिए।
उदीरणा में कारण रूप योग संज्ञा वाला वीर्य विशेष भवकृत और परिणामकृत के भेद से दो प्रकार है । उसमें देव, नारक आदि पर्याय को भव और अध्यवसाय या आहारक आदि शरीर का परिणाम और बांधे गये रस का अन्यथा भाव यह परिणाम जानना चाहिये।
परिणामकृत के भी दो प्रकार हैं-१. निर्गुण परिणामकृत २. सगुण परिणामकृत । यानि निगुण जीवों के परिणामों द्वारा किये गये और गुणवान जीवों के परिणाम द्वारा किये गये, इस तरह परिणामकृतप्रत्यय दो प्रकार का है।
अब जिन प्रकृतियों की उदीरणा गुण-अगुण परिणामकृत या भवकृत नहीं है, उनका निर्देश करते हैं
उत्तरतणुपरिणामे अहिय अहोन्तावि होंति सुसरजुया। मिउलहु परघाउज्जोय खगइचउरंसपत्तेया ॥५०।।
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