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पंचसंग्रह : ८
शब्दार्थ-सेसाणं-शेष प्रकृतियों का, जहबंधे-बंध में कहे अनुसार, होइ–होता है, विवागो-विपाक, उ-और, पच्चओ-प्रत्यय, दुविहो-दो प्रकार का, भवपरिणामकओ-भव और परिणामकृत, वा-तथा, निग्गुणसगुणाण - निर्गुण और सगुण, परिणइओ-प िणति से।
गाथार्थ-शेष प्रकृतियों का विपाक बंध में कहे अनुसार उदीरणा में भी जानना चाहिए। भवकृत और परिणामकृत इस तरह प्रत्यय के दो प्रकार हैं। तथा परिणामकृत प्रत्यय निर्गुण
और सगुण परिणति से दो प्रकार का है। विशेषार्थ-गाथा में शेष प्रकृतियों के विपाक सम्बन्धी विशेष का कथन करने के पश्चात् भेद निरूपणपूर्वक प्रत्ययप्ररूपणा का विचार प्रारम्भ किया है। विपाक विषयक विशेष का आशय इस प्रकार है--
पूर्वोक्त प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियों के विपाक-फल का अनुभव पुद्गल और भव आदि द्वारा जैसा बंध में कहा है, उसी प्रकार उदीरणा में भी समझना चाहिए। यानि कि उदीरणा से भी जीव पुद्गल और भव आदि के द्वारा उन-उन प्रकृतियों के फल को अनुभव करता है। प्रत्ययप्ररूपणा
अब प्रत्ययों का निरूपण करते हैं-प्रत्यय, हेतु और कारण ये एकार्थक हैं। किस हेतु या कारण के माध्यम से उदीरणा होती है, उसको यहाँ बतलाते हैं । वीर्यव्यापार के बिना उदीरणा नहीं हो सकने से कषायसहित या कषायरहित योग संज्ञावाला वीर्य उसका मुख्य कारण है । इसका तात्पर्य यह हुआ
किसी भी करण की प्रवृत्ति वीर्यव्यापार बिना नहीं हो सकती है। जिससे कषायसहित या कषायरहित जो वीर्यप्रवृत्ति, वही उदीरणा में भी कारण है। अमुक-अमुक प्रकार का वीर्यव्यापार होने में भी अनेक कारण होते हैं जैसे कि देव भव में अमुक प्रकार का और नारक, तिर्यंच, मनुष्य भव में अमुक प्रकार का वीर्य व्यापार होता है। देश या सर्व
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