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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७
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प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा आहारक शरीरस्थ संयत के होती है । जो अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही प्रवर्तित होने से सादि-सांत है । उसके अतिरिक्त शेष सब अनुभाग उदीरणा अनुत्कृष्ट है और वह आहारकशरीर का उपसंहार होते समय होती है, अतः सादि है । उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया उसकी अपेक्षा अनादि, अभव्य के ध्रुव तथा भव्य के अध्रुव है ।
तेजस्सप्तक, स्थिर, शुभ, निर्माण, अगुरुलघु, श्वेत, पीत, रक्त वर्ण, सुरभिगंध, मधुर, आम्ल, कषाय रस, उष्ण, स्निग्ध स्पर्श रूप शुभ ध्रुवोदया बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार की है और वह इस प्रकार - इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस की उदीरणा सयोगिकेवली के चरम समय में होती है, जिससे वह सादि-सांत है। उसके सिवाय अन्य शेष सब अनुत्कृष्ट है । उसके सर्वदा होते रहने से अनादि, अभव्य के ध्रुव और भव्य के अध्रुव है । तथा
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अण्णा असुभधुवोदयाण तिविहा भवे तिवीसाए । सेसा सव्वे अधुवोदयाणं तु ॥ ५७ ॥
साईअधुवा
शब्दार्थ - अजहण्णा - अजघन्य, असुभधुवोदयाण - अशुभ ध्रुवोदया प्रकृतियों की, तिविहा- तीन प्रकार की, भवे― होती है, तिवसाए - तेईस, साइअधुवा - सादि और अध्रुव, सेसा - शेष की, सब्वे - सब, अधुवोदयाणंअध्रु वोदय प्रकृतियों की, तु — और ।
गाथार्थ - अशुभ ध्र ुवोदया तेईस प्रकृतियों की अजघन्य अनुभाग- उदीरणा तीन प्रकार की है । शेष विकल्प तथा अध्रुवोदया प्रकृतियों के समस्त विकल्प सादि अध्रुव हैं ।
विशेषार्थ - ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, कृष्ण, नील वर्ण, दुरभिगंध, तिक्त, कटुक रस, रूक्ष, शीत स्पर्श, अस्थिर, अशुभ और अत
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