Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८
८७
शेष अध्र वोदया एक सौ दस प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये सभी विकल्प उन प्रकृतियों के अध्र वोदया होने से सादि-सांत हैं । उदय हो तब उत्कृष्ट आदि कोई भी उदीरणा होती है और उदय के निवृत्त होने पर नहीं होती है। ___इस प्रकार से मूल और उत्तर प्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा जानना चाहिये । अब क्रमप्राप्त स्वामित्व प्ररूपणा करते हैं। वह उत्कृष्ट उदीरणास्वामित्व और जघन्य उदीरणास्वामित्व के भेद से दो प्रकार की है। उसमें से प्रथम उत्कृष्ट उदीरणास्वामित्व का निर्देश करते हैं। उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणास्वामित्व
दाणाइअचक्खूणं उक्कोसाइंमि होणलद्धिस्स । सुहुमस्स चक्खुणो पुण तेइंदिय सव्वपज्जत्त ॥५८।।
शब्दार्थ-दाणाइ-दान आदि अन्तरायपंचक, अचक्खूणं-अचक्षुदर्शनावरण की, उक्कोसाइंमि- उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा भव के आदि में, होणलद्धिस्स-हीन लब्धि वाले, सुहमस्स- सूक्ष्म एकेन्द्रिय के, चक्खुणोचक्षुदर्शनावरण की, पुण-पुनः और, तेइंदिय-त्रीन्द्रिय के, सव्वपज्जत्तेसर्वपर्याप्तियों से पर्याप्त ।
गाथार्थ-दानादि अन्तरायपंचक और अचक्षुदर्शनावरण के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा हीन लब्धि वाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय को भव के आदि समय में तथा चक्षुदर्शनावरण की (स्वयोग्य) सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त त्रीन्द्रिय के होती है।
विशेषार्थ-दानान्तराय आदि पांच अन्तराय और अचक्षुदर्शनावरण इन छह प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा अत्यन्त अल्प दानादि लब्धि वाले और चक्षु के सिवाय शेष इन्द्रियों के विज्ञान की अत्यन्त अल्प लब्धि वाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय को उत्पत्ति के प्रथम समय में होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org