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पंचसंग्रह ८
रायपंचक रूप अशुभ ध्रुवोदया तेईस प्रकृतियों की अजघन्य अनुभागउदीरणा अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह तीन प्रकार की है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
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उपर्युक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग की उदीरणा उन-उन प्रकृतियों के उदीरणा- विच्छेद-स्थान में होती है और वह सादि-अध्र ुव है । उसके सिवाय शेष अन्य सब अजघन्य है और उसके सर्वदा प्रवर्तित होते रहने से वह अनादि, अभव्य के ध्रुव तथा भव्य के अध्रुव होती है ।
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उपर्युक्त सभी प्रकृतियों के उक्त से शेष विकल्प सादि-अध्रुव हैं । किस प्रकृति के कौन विकल्प उक्त से शेष हैं ? तो वह इस प्रकार जानना चाहिए – कर्कश, गुरु, मिथ्यात्व और अशुभ ध्रुवोदया तेईस प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य ये तीन विकल्प तथा मृदु, लघु और शुभ ध्रुवोदया बीस प्रकृतियों के जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट ये तीन विकल्प शेष हैं । जिनमें सादि - अध्रुव भंगों का विचार इस प्रकार है
कर्कश, गुरु, मिथ्यात्व और अशुभ ध्रुवोदया तेईस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा मिथ्यादृष्टियों के एक के बाद दूसरी इस प्रकार के परावर्तमान क्रम से होती है । क्योंकि ये सभी पाप प्रकृतियां हैं और उनका उत्कृष्ट अनुभागबंध मिथ्यादृष्टियों के होता है । अतएव ये दोनों भंग सादि-अ व सांत हैं। जघन्य का विचार अजघन्य भंग के प्रसंग में किया जा चुका है तथा मृदु, लघु स्पर्श एवं ध्रुवोदया बीस प्रकृतियों के जघन्य - अजघन्य अनुभाग की उदीरणा मिथ्यात्वियों के एक के बाद एक के क्रम से होती है । क्योंकि ये पुण्य प्रकृतियां हैं और क्लिष्ट परिणाम के योग से उनका जघन्य रसबंध होता है । अतः वे दोनों सादि-सांत हैं । अनुत्कृष्ट के प्रसंग में उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा का विचार किया जा चुका है ।
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