Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६
८३ अन्य विकल्प सादि और अध्र व-सांत इस तरह दो प्रकार के हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-घातिकर्म की उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा मिथ्या दृष्टि के एक के बाद दूसरी इस क्रम से प्रवर्तित होने से सादि है। उक्त कर्मों का उत्कृष्ट र सबंध पहले गुणस्थान में होता है, जिससे जब तक उत्कृष्ट रस सत्ता में हो, तब तक उनकी उत्कृष्ट तत्पश्चात् अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा प्रवर्तमान होती है तथा जब उत्कृष्ट रस का बंध हो तब उत्कृष्ट अनुभाग-उदीरणा होती है। इस प्रकार के परावर्तन क्रम से होने के कारण सादि-सांत है
और जघन्य उदीरणा विषयक विचार अजघन्य-उदीरणा के प्रसंग में किया जा चुका है।
नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की जघन्य, अजघन्य अनुभागउदीरणा मिथ्या दृष्टि के एक के बाद एक इस तरह बदल-बदल कर होने से दोनों सादि सांत हैं। इन कर्मों के जघन्य अनुभाग का बंध निगोदिया जीव के होता है, अतः उक्त प्रकार से जघन्य-अजघन्य सादि-सांत हैं। उत्कृष्ट उदीरणा के सम्बन्ध में पहले विचार किया जा चुका है। __आयुकर्म के जघन्य आदि चारों भेद उसके अध्र व होने से सादि और सांत-अध्र व इस तरह दो प्रकार के हैं। क्योंकि पर्यन्तावलिका में किसी भी आयु की उदीरणा नहीं होती है। पर्यन्तावलिका से पूर्व तक ही होती है।
इस प्रकार से मूलकर्म सम्बन्धी सादि आदि विकल्पों को जानना चाहिये । अब उत्तरप्रकृतिविषयक साद्यादि प्ररूपणा करते हैं। उत्तरप्रकृतियों की साद्यादि प्ररूपणा
कक्खडगुरुमिच्छाणं अजहण्णा मिउलहूणणुक्कोसा। चउहा साइयवज्जा वीसाए धुवोदयसुभाणं ॥५६॥
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