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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५४, ५५
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अजहण्णा - अजघन्य, मोहणीय - मोहनीय की, चउभेया - चार प्रकार की है । सघाईर्ण - शेष घाति प्रकृतियों की, तिविहा- तीन प्रकार की, नामगोयाशुक्कोसा - नाम और गोत्र की अनुत्कृष्ट ।
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सेविगप्पा - शेष विकल्प, दुविहा- दो प्रकार के, सब्बे - सभी, आउस्स - आयुकर्म के, होउं - होकर, उवसन्तो — उपशांत, सव्वट्ठगओ - सर्वार्थसिद्ध में गया हुआ, साए - सातावेदनीय की, उक्कोसुद्दीरणं - उत्कृष्ट उदीरण, कुण - करता है ।
गाथार्थ -- वेदनीयकर्म की अनुत्कृष्ट और मोहनीय की अजघन्य उदीरणा चार प्रकार की है । शेष घाति कर्मों की तीन प्रकार की है । नाम और गोत्र कर्म की अनुत्कृष्ट उदीरणा भी तीन प्रकार की है।
उक्त से शेष विकल्प दो प्रकार के हैं । आयुकर्म के सभी विकल्प दो प्रकार के हैं । उपशांत होकर सर्वार्थसिद्ध में गया जीव सातावेदनीय की उत्कृष्ट उदीरणा करता है ।
विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में मूल कर्म प्रकृतियों की सादि आदि प्ररूपणा की है और उसका प्रारम्भ किया है वेदनीय कर्म से -
वेदनीय कर्म की अनुत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस तरह चार प्रकार की है । वह इस तरह
उपशमणि में सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान में यथायोग्य रूप से उत्कृष्ट रस वाला सातावेदनीय का बंध करे और वहाँ से कालधर्म प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध महाविमान में उत्पन्न हो, तब पहले समय में उसको जो उदीरणा होती है, वह उत्कृष्ट अनुभाग- उदीरणा है और वह नियत कालपर्यन्त ही होने से सादि-सांत है । उसके सिवाय अन्य सभी अनुत्कृष्ट उदीरणा है। वह अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में नहीं होती है, किन्तु वहाँ से पतन हो तब होती है । इसीलिये सादि है, उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया उसकी अपेक्षा अनादि, अभव्य
के ध्रुव और भव्य के अध्रुव उदीरणा है ।
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