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पंचतंग्रह : ८
___ स्त्रीवेद आदि नव नोकषायों का अति जघन्य अनुभागस्पर्धक से लेकर अनुक्रम से (कुल स्पर्धक का) अनन्तवाँ भाग देशविरति-सर्वविरत जीवों को गुणपरिणामकृत उदीरणायोग्य समझना चाहिए। तथा
जा जंमि भवे नियमा उदीरए ताउ भवनिमित्ताओ। परिणामपच्चयाओ सेसाओ सइ स सब्वत्थ ॥५२।।
शब्दार्थ-जा जंमि भवे---जिन प्रकृतियों की जिस भव में, दियभा-- नियम से, उदीरए-उदीरणा होती है, ताउ-वे, भवनिमित्ताओ-भव निमित्तक, परिणामपच्चयाओ- परिणाम प्रत्यथिक, सेसाओ- शेष, सइहोती है, स-वह, सव्वत्थ-सर्वत्र ।
गाथार्थ-जिन प्रकृतियों की जिस भव में अवश्य उदीरणा होती है, वे भवनिमित्तक और शेष परिणामप्रत्ययिक कहलातो हैं । क्योंकि उनकी उदीरणा सर्वत्र होती है।
विशेषार्थ-जिन-जिन कर्म प्रकृतियों की जिस-जिस भव में अवश्य उदीरणा होती है, वे प्रकृतियां उस-उस भव के कारण होने से तद्भव प्रत्ययिक कहलाती हैं । अर्था । उन-उन प्रकृतियों की उदीरणा में वहवह भव कारण है । जैसे कि नरकत्रिक की उदीरणा नारकभवनिमि
जघन्य स्पर्धक से लेकर समस्त स्पर्धकों का अनन्तवाँ भाग वेद आदि प्रकृतियों का देशविरत आदि जीवों के उदीरणायोग्य' कहा है । यानि जघन्य रसस्पर्धक से लेकर अनन्त स्पर्धक द्वारा जैसा परिणाम हो वैसा वेदादि का उदर देशविरतादि को समझना चाहिये। क्योंकि गुण के प्रभाव से
उस-उस पापप्रकृति का उदय मन्द-मन्द होने से यह सम्भव है। २ कर्मप्रकृति उदीरणाकरण गाया ५२ में इन प्रकृतियों का असंख्यातवाँ भाग
गुणपरिणामकृत उदीरणायोग्य बताया है।
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