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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५१
७७ सुभगाइ उच्चगोयं गुणपरिणामा उ देसमाईणं । अइहीणफड्डगाओ अणंतंसो नोकसायाणं ॥५१॥
शब्दार्थ-सुभगाइ-सुभग नाम आदि, उच्चगोयं-उच्चगोत्र, गुणपरिणामा उ-गुणपरिणाम से ही, देसमाईणं-देशविरति आदि के, अइहीणफड्डगाओ-अतिहीन स्पर्धक से, अणंतंसो-अनन्तवां भाग, नोकसायाणंनोकषायों का।
गाथार्थ-देशविरति आदि के सुभगादि और उच्च गोत्र की उदीरणा गुणपरिणाम से होती है तथा इन्हीं जीवों के नव नोकषायों का अतिहीन स्पर्धक से लेकर अनन्तवाँ भाग गुण परिणामकृत उदीरणायोग्य समझना चाहिए। विशेषार्थ -देशविरति और प्रमत्तसंयत आदि जीवों के सुभग आदि सुभग, आदेय और यश कीति तथा उच्चगोत्र की अनुभाग-उदीरणा गुण परिणाम कृत-देश विरति आदि विशिष्ट गुण की प्राप्ति द्वारा हुए परिणामकृत हैं यह समझना चाहिए। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ कोई जीव सुभग आदि की प्रतिपक्षी दुर्भग आदि प्रकृतियों के उदय से युक्त होने पर भी जब देशविरति या सर्वविरति गुण को प्राप्त करता है, तब उस देश विरति आदि गुण के प्रभाव से उस गुणसम्पन्न जीव को सुभगादि प्रकृतियों की उदयपूर्वक उदीरणा प्रवर्तित होती है। यानि दुभंगादि का उदय बदलकर सुभगादि का ही उदय होता है।
उदीरणा में कारणभूत होने से परिणामकृत उदीरणा में उसका समावेश किया है । उसमें आहारकशरीर का परिणाम गुणवान आत्माओं को ही होने से उसकी उदीरणा का समावेश गुणपरिणामकृत में और वैक्रिय शरीर का परिणाम गुणी, निर्गुणी दोनों के होने से उसकी उदीरणा का समावेश सगुण-निर्गुण परिणामकृत दोनों में हो सकता है, इसीलिए यहाँ परिणाम का शरीरपरिणाम भी अर्थ किया है।
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