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उदीरणाकरण प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६
कम होकर उदय में आने पर उदय और उदीरणा में द्विस्थानक ही रस होता है। मात्र घातिसंज्ञाश्रित मिश्रमोहनीय का रस सर्वघाति और शेष प्रकृतियों का रस अघाति है ।
अब शुभाशुभत्व विषयक विशेष का निर्देश करते हैं। शुभाशुभत्व-विषयक विशेष
सम्मत्तमीसगाणं असुभरसो सेसयाण बंधुत्त ।
उक्कोसुदीरणा संतयंमि छटाणवडिए वि ॥४६॥ शब्दार्थ-सम्मत्तमीसगाणं--सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय का असुभरसो -~- अशुभ रस सेसयाण-- शेष प्रकृतियों का, बंधुत्तं-बंध के रामान, उक्कोसुदोरणा--- उत्कृष्ट उदीरणा, संतयंमि--सत्ता में, छट्ठाणवडिए वि---षट्स्थान पतित होने पर भी।
गाथार्थ- सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय का अशुभ रस है, शेष प्रकृतियों के विषय में बंध के समान है। सत्ता में-अनुभाग की सत्ता में षट्स्थानपतित होने पर भी उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा होती है।
विशेषार्थ-सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय ये दोनों प्रकृति घाति होने से उनका रस अशुभ ही जानना चाहिए और इसी कारण ये दोनों प्रकृतियां रस की अपेक्षा पाप प्रकृतियाँ कहलाती हैं। शेष प्रकृतियों का शुभाशुभत्व बंध के समान जानना चाहिए। यानि बंध में जिन १ जिन प्रकृतियों के सम्बन्ध में अमूक प्रकार के रस की उदीरणा होती है,
ऐसा न कहा हो, उनके लिए बंधानुरूप समझना चाहिये । अर्थात् उन-उन प्रकृतियों का जघन्य-उत्कृष्ट जितना रस बन्ध होता हो उतना उदीरणा में भी समझना चाहिये। मात्र अघाति प्रकृतियों का अनुभाग सर्वघातिप्रतिभाग सदृश होता है । अघाति प्रकृतियों का रस है तो अघाति लेकिन सर्वघाति के साथ जब तक अनुभव किया जाता है, तब तक उसके जैसा होकर अनुभव मे आता है।
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