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उदीरणाकरण प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४७
अe विपाकाश्रित विशेष का कथन करते हैं । विपाकाश्रित विशेष
मोहणीयनाणावरणं केवलियं दंसणं विरियविग्धं । संपुन्नजीवदव्वे न पज्जवेसुं कुणइ पागं ॥ ४७ ॥
शब्दार्थ - मोहणीय नाणावरणं--- मोहनीय, ज्ञानावरण, केवलियंसणंकेवलदर्शनावरण, विरियविग्धं -- वीर्यान्तराय, संपन्न जीवदव्वे सम्पूर्ण जीवद्रव्य में, न पज्जवेसु - पर्यायों में, कुणइ- - करता है, पागं-विपाक ।
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गाथार्थ - मोहनीय, ज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्म सम्पूर्ण जीवद्रव्य में विपाक करता है, परन्तु सर्व पर्यायों में विपाक नहीं करता है ।
विशेषार्थ -- मोहनीय की अट्ठाईस, ज्ञानावरण की पांच, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तराय ये पैंतीस प्रकृतियां सम्पूर्ण जीवद्रव्य में विपाक उत्पन्न करती हैं, परन्तु समस्त पर्यायों में उत्पन्न नहीं करती । यानि ये पैंतीस प्रकृतियां द्रव्य से सम्पूर्ण जीवद्रव्य को घात करती हैं- दबाती हैं, परन्तु सम्पूर्ण पर्यायों को दबाने में अशक्य होने से आवृत नहीं करती हैं।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि उपर्युक्त प्रकृतियाँ अपने विपाक का अनुभव जीव के अमुक भाग को ही कराती हैं, अमुक भाग को नहीं, ऐसा नहीं है, परन्तु सम्पूर्ण जीवद्रव्य को कराती हैं, फिर भी उससे
समस्त सामुदायिक रस अनन्तभागादि हीन या अनन्तगुणाविहीन होता है, किन्तु सत्तागत समस्त स्पर्धकों में से अनन्तभागहीनादि रस कम होता नहीं है । कितनेक स्पर्धक जैसे बँधे थे, वैसे ही सत्ता में रह जाते हैं, जिससे उत्कृष्ट रस के सत्ताकाल में षट्स्थान पड़ने पर भी उदीरणा हो सकती है, जैसे उपशमश्र णि में किट्टियां होने पर भी अपूर्व स्पर्धक और पूर्व स्पर्धक भी सत्ता में रहते हैं ।
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