Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३७
५७
और संज्वलन लोभ की उपशम, क्षपक दोनों श्रेणियों में और शेष प्रकृतियों की क्षपकश्र ेणि में ही जघन्य स्थिति उदीरणा होती है ।
तथा
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एगिदागय अइहीणसत्त सण्णीसु मीसउदयंते । । पवणो सट्ठिइ जहण्णगसमसत्त विउव्वियस्संते ||३७||
शब्दार्थ - एगिन्दागय - एकेन्द्रिय में से आया हुआ, अइहोणसत्त- अतिहीन सत्ता वाला, सण्णीसुसंज्ञी में, मीसउदयंते - मिश्रमोहनीय के उदय के अंत में, पवणो-वायुकाय, सट्ठिइ – स्वस्थिति, जहण्णगसमसत्त- जघन्य स्थिति के समान सत्ता वाला, विउब्वियस्सं ते वैक्रिय (षट्क) के उदय के अंत में ।
गाथार्थ - अतिहीन सत्ता वाला एकेन्द्रिय में से निकलकर संज्ञ में आया हुआ जीव उदय के अन्त में मिश्रमोहनीय की तथा अपनी जघन्य स्थिति के समान वैक्रियषट्क की सत्ता वाला वायुकायिक जीव उदय के अन्त में वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति - उदीरणा करता है ।
१ यहाँ सम्यक्त्वमोहनीय और संज्वलन लोभ की दोनों श्रेणि में और शेष प्रकृतियों की मात्र क्षपकश्रेणि में ही जघन्य स्थिति उदीरणा कही है । दोनों श्रेणि में क्यों नहीं कही, इसका कारण समझ में नहीं आया । क्योंकि दोनों श्रेणियों में प्रथम स्थिति की समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति शेष रहे तब उदयावालिका से ऊपर की समय प्रमाण स्थिति ये अति जघन्यतम स्थिति है और उसकी उदीरणा जघन्य स्थिति - उदीरणा कहलाती है । तत्त्व बहुतगम्य है । मिथ्यात्व की तो प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करते प्रथम स्थिति की समयाधिक आवलिका स्थिति शेष रहे तब जघन्य स्थिति - उदीरणा संभावित है । क्योंकि श्रेणि में तो सर्वथा उपशम या क्षय करते उसका रसोदय नहीं होता ।
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