Book Title: Panchsangraha Part 08
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५
५५
नरक -गति, देवगति की तथा आनुपूर्वी की अपनी-अपनी आयु के तीसरे समय में जघन्य स्थिति उदीरणा होती है ।
विशेषार्थ - असंज्ञी पंचेन्द्रिय में से निकलकर देव अथवा नारक में आये हुए के अपनी अपनी आयु की दीर्घ स्थिति के अन्त में वैक्रियअंगोपांग, देवगति और नरकगति की जघन्य स्थिति की उदीरणा होती है तथा देवानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी की अपनी-अपनी आयु के तीसरे समय में जघन्य स्थिति- उदीरणा होती है ।
इसका तात्पर्य यह है कि कोई असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव देवगति आदि की अति अल्प स्थिति बांधकर और उसके बाद असंज्ञी पंचेन्द्रिय में ही दीर्घकाल पर्यन्त रहकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण आयु
१ यहाँ दीर्घकाल कितना, इसका संकेत नहीं किया है । परन्तु कोई पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला असंज्ञी हो और उस आयु का अमुक थोड़ा भाग जाने के बाद जघन्य स्थिति से उपर्युक्त तीन प्रकृतियों का बंध करे, तत्पश्चात् बंध न करे, इस प्रकार हो तो दीर्घकाल पर्यन्त असंज्ञी में रहना घटित हो सकता है । ऐसा जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण देव अथवा नरक आयु बांधकर देव या नारक में उत्पन्न हो । असंज्ञी उससे अधिक आयु नहीं बांधते हैं। उतने काल वहाँ उदय, उदीरणा से स्थिति कम करे, जिससे अपनी-अपनी आयु के चरम समय में जघन्य स्थिति की उदीरणा घटित हो सकती है ।
कदाचित् यह शंका हो कि तेतीस सागरोपम के आयु वाले देव, नारक को चरम समय में जघन्य स्थिति - उदीरणा क्यों नहीं कही ? तो इसका उत्तर यह है कि उतनी आयु की स्थिति बांधने वाला संज्ञी पर्याप्त ही होता है और वह उक्त प्रकृतियों की अन्त: कोडाकोडी से कम स्थिति नहीं बांधता है और असंज्ञी तो उक्त प्रकृतियों की पल्योपम के असंख्यात वें भाग न्यून २ / ७ भाग ही जघन्य स्थिति बांधता है । जिससे असंती में से आये हुए देव, नारक के ही जघन्य स्थिति - उदीरणा सम्भवित है ।
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